अस्वच्छता के इहलोक में स्वच्छता का मंत्र
मनोहर मनोज
सार्वजानिक जीवन में भ्रष्टाचार उन्मूलन और सार्वजनिक स्थानों पर गन्दगी व अव्यवस्था का उन्मूलन, इन दोनो से बड़ा अभियान और कुछ हो ही नहीं सकता। परन्तु भ्रष्टाचार उन्मूलन के लिए कुछ राजनेताओ व कुछ अफसरों को न्यायालय या जाँच एजेंसियों के दायरे में ला देने और इसी तरह सफाई के बहाने कुछ गणमान्य लोगों द्वारा झाड़ू उठा लेने से इसकी पोस्चरिंग यानी दिखावा तो अच्छा हो जाता है, परन्तु क्या इन अभियानों का कोई सर्वांगीण अंजाम निकल पाता है? शायद नहीं। नरेन्द्र मोदी सरकार ने स्वच्छता अभियान को जिस तरह से पहली बार मिशन का रूप दिया, वह अपने आप में एक अदभूत विजन था, पर इसका जमीन पर अवतरित नहीं हो पाना उतना ही निराशाजनक।
यदि हम इस समूचे राष्ट्रीय स्वच्छता अभियान की एक पूरी पड़ताल करें तो इसमें चार मुद्देेंं प्रमुखता से उभरती हैं 1 नित्य दिन की सफाई जिसमे मेनुअल श्रम से लेकर तकनीकों का प्रयोग किस तरह के हैं 2 सफाई के उपरांत एकत्रित तमाम तरह के कूड़े व अपशिष्ट पदार्थों के निस्काषन की समवेत योजना कैसी है 3 देश में मल मूत्र ट्वायलेट की सार्वजनिक व घरेलू उपलब्धता व जरूरत के बीच का फासला कितना बड़ा है। और 4 उपरोक्त तीनों पहलुओं पर देश में निवेश, तकनीक और संस्थागत तैयारियों की वस्तु स्थिति कैसी है ?
पहले नित्य दिन की सफाई की बात करें तो देश के सभी महानगरों, राज्य की राजधानियों और देश के मंडलों स्थित नगर निगमों के जरिये विभिन्न्ज्ञ सार्वजनिक स्थानों मसलन सडक़, फूटपाथ के लिए जो सफाई कर्मचारी बहाल हैं उनके द्वारा डय़ूटी कैसी निभायी जा रही है, उसे देखना बेहद महत्वपूर्ण है। होता ये है कि देश की राजधानी दिल्ली और कुछ हद तक अन्य महानगरों में तैनात सफाई कर्मचारी रूटीन तरीके से झाड़ू तो लगा देते है परंतु यह स्थिति देश के बी ग्रेड के शहरों में नहीं दिखायी देती है। यहां कभी कभार ही झाड़ू लगता है और इससे नीचे यानी जिला मुख्यालयों में तो नगर निगमों से भी ज्यादा खराब स्थिति है। सबसे नीचे नगरपालिका स्तर पर मामले सुभान अल्लाह । वस्तु स्थिति ये है कि देश के करीब 5 हजार नगरपालिका या नगरपरिषद स्तर के शहरों में तो साल में एक दिन के लिये भी झाड़ू नहीं लगता। जब देश की आर्थिक राजधानी मुबंई के लोगों की धारणा ये है कि वहां कायदे से सफाई तो बरसात के लंबे मौसम में हीं होती है तो फिर देश के बाकी नगर पालिका कस्बों की बात क्या करें।
इन सभी वर्ग के शहरों में कार्यरत सफाई कामगारों के वेतन व पारिश्रमिक की स्थिति क्या है, इसकी तहकीकात बेहद जरूरी है। होता ये है कि सार्वजनिक क्षेत्र में कार्यरत स्थायी सफाई कर्मचारी को सुबह के वक्त करीब दो घंटे झाड़ू लगाना पड़ता है बाकी समय में वह खाली बैठे रहते हैं। पर जिन सरकारी महकमों में सफाई का काम ठेके द्वारा कराया जाता है वहां सफाई कर्मचारियों को काफी कम पैसे देकर ज्यादा समय तक काम करवाया जाता है। यानी हमारी सफाई व्यवस्था में एक जगह निठल्लावाद दिखता है तो दूसरी ओर कई जगहों पर ज्यादा मिहनत करने वाला सफाइकर्मी अपने जीवन यापन के लिए वाजिब पारिश्रमिक भी नहीं कमा पाता। जाहिर है कि सरकार को देश भर के सफाई कर्मचारियों के लिये एक नयी राष्ट्रीय पारिश्रमिक नीति लानी चाहिए जिसमे इनके कार्य अवधि के आधार पर वाजिब पारिश्रमिक व सामाजिक सुरक्षा की सारी सुविधायें मिलें जिससे देश के इस सफाई अभियान के इन सेनानियों का मनोबल उंचा हो सके। अगर देश के सफाई कर्मचारियों के लिए एक राष्ट्रीय वेतन नीति बनाया जाता है तो इससे देश के सभी नगरपालिकाएं एक निर्धारित पारिश्रमिक पर सफाई कर्मचारियों को बहाल भी करेंगी तथा उसके लिये राजस्व की व्यवस्था करने के लिये भी बाध्य होंगी।
इस अभियान का दूसरा पहलू सफाई तकनीक के प्रचलन को लेकर है। पूर्व प्रधानमंत्री पी वी नरसिंह राव ने सर पर मैला ढा़ेने की प्रथा निषिद्ध कर एक क्रांतिकारी काम किया। परंतु हमारे मेनुअल सफाई कर्मचारी आज भी बड़े ही अनहाईजेनिक या अस्वास्थ्यकर तरीके से सफाई कार्यों को अंजाम देते हैं। इन्हें अपने कार्य के दौरान कभी सीवर होल में घूसना तो कभी अपने हाथ लगाकर सेफ्टी टंैक की सफाई करनी पड़ती है। कई सफाइकर्मी सीवर होल में घूसकर अपनी जान दे देते हैं। देश के सभी सफाई एजेंसियों और शहरी निकायों को चाहिए की वे सफाई उपकरणों और इनमे नयी तकनीक का प्रचलन ज्यादा से ज्यादा बढ़ाएं और इसकी एक कानूनी बाध्यता भी तय हो। सफाई को लेकर देश में ज्यादा से ज्यादा रिसर्च एंड डेवलपमेंट को प्रोत्साहित किया जाए। जब तक हम देश में यह मानसिकता नहीं बनाते कि सफाई कोई घिनौना काम नहीं है बल्कि यह काम वैसा ही है जैसे अन्य काम तभी देश में मानसिक तौर पर सफाई क्रांति का सही आगमन सुनिश्चित होगा।
इस सफाई अभियान का तीसरा पक्ष है देश के करीब 5000 शहरों में कूड़े तथा सफाई के लिए सीवर की उपलब्धता, उसकी निरंतर क्लियरिंग तथा अपशिष्ट पदार्थों के निस्काषन, डंपिंग व उनके ट्रीटमेंट के लिये प्लानिंग एवं फंड की पर्याप्त व्यवस्था। देश में छोटे शहरों की बात छोड़ें, यहां तक कि बड़े शहरों में वहां की कालोनियों व आबादी के हिसाब से सीवर की कमी है। जहां सीवर है वहां उनका ट्रीटमेंट प्लंाट नहींं। यहां तक की मुंबई जैसे शहर में जल निकासी की पर्याप्त व्यवस्था नहीं है। देश के अधिकतर शहरों में कूड़े डंप करने के लिये कूड़े घर की संख्या पर्याप्त नहीं है। सवाल केवल झाड़ू लगा देने भर का नहीं हैं जो बात राष्ट्रीय स्वच्छता अभियान में अबतक केवल परिलक्षित हुई है। मूल सवाल है कि कूड़े की स्टोरिंग, डंपिंग एवं ट्र्रीटमेंट की तमाम व्यवस्थाओं से देश के सभी पंाच हजार शहर सुसज्जित हैं या नहीं। देश के सभी स्थानीय शहरी निकायों का इंतजामिया तंत्र इस कार्य को कितने बेहतर तरीके से अंजाम दे रहा है। इन्हें सूचारू बनाने के लिये फंड एवं इनका रेवेन्यू माडेल क्या है। जबतक इसका हम रेवेन्यू माडेल नहीं बनाते तबतक हम इस अभियान को आर्थिक रूप से वाएबुल यानी सतत चलायमान नहीं बना सकते। कई जगहों पर कूड़े से बिजली बनाकर सडक़ों पर रोशनी देने का काम हो रहा है। इस माडल को हमे देश के सभी शहरों में लागू करने के लिये शहरी निकायों को गैर सरकारी संगठनों तथा निजी कंपनियों के साथ पार्टनरशिप माडेल पर काम शुरू करना चाहिए। हमारे सामने सुलभ के रूप में एक बड़ी रोल माडल संस्था है जिसने 1980 के दशक में सुलभ तकनीक के जरिये भारत में एक सामाजिक व सफाई क्रांति का आगाज किया। हमे इस सफाई अभियान के लिए एक व्यापक संस्थागत स्वरूप निर्धारित करने की जरूरत है।
सफाई अभियान का चौथा एवं एक बेहद अहम पक्ष है देश में शौचालयों के निर्माण को त्वरित गति देना। देश के ग्रामीण इलाकों में जहां खुले में शौच करने की पुरातन परंपरा चली आ रही थी उस पर कुछ हद तक अंकुश लगाने में स्वच्छता अभियान को जरूर सफलता मिली है। देश के करीब 40 फीसदी परिवार जिनके पास शौचालय बनाने के लिये संसाधन नहीं, इनके लिये करीब 5 करोड़ घरों में टवायलेट बनाने के लिये मौजूदा सब्सिडी व्यवस्था के तहत करीब पचपन हजार करोड़ रुपये की जरूरत है। इन परिस्थितियों में देश के सफाई योजनाकारों के लिए देश में शौचालय निर्माण की ज्यादा सस्ती तकनीक और दूसरा इसक ा एक बेहतर रेवेन्यू माडल लाने की एक बड़ी चुनौती। शिक्षा अधिभार की तरह देश में सफाई अधिभार की शुरूआत उचित कदम है। पर सबसे जरूरी है कि देश के सभी सार्वजनिक शौचालयों में १, २, व ५ रुपये शुल्क के आधार पर पेशाब, पखाना और स्नान की प्रयुक्ति का अनिवार्य नियम बनाया जाए। राष्ट्रीय स्वच्छता अभियान की चुनौती झाड़ू उठा लेने में नहीं बल्कि इसके लिये तमाम तत्वों जिसमे वित्त, तकनीक, संस्थागत स्वरूप और मानव संसाधन की प्लानिंग सबको फोकस में लेकर ही इस महाकार्य का त्वरित और निरंतर अंजाम दिया जा सकता है।