स्वास्थ्य बीमा या स्वास्थ्य सुधार हमें आखिर चाहिए क्या ?

स्वास्थ्य बीमा या स्वास्थ्य सुधार


हमें आखिर चाहिए क्या ?


    -मनोहर मनोज


पंद्रह अगस्त को लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने मौजूदा कार्यकाल के आख़िरी संबोधन में राष्ट्रीय आरोग्य योजना की शुरूआत का ऐलान किया । इस योजना के दो मुख्य हिस्से हैं । पहला देश भर में सरकारों द्वारा स्वयं के स्तर पर प्राथमिक चरण की सभी स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैय्या कराना, जिसके तहत देश भर में ‘स्टेट आफ आर्ट’ तरीके से करीब डेढ लाख प्राथमिक उप-स्वास्थ्य केन्द्र स्थापित होंगे । इन केन्द्रों में प्राथमिक उपचार,टीकाकरण, मातृ-शिशु देखभाल, योगा व फिटनेस के कार्य संचालित होंगे । इसका दूसरा कंपोनेंट है देश के सामाजिक आर्थिक रूप से पिछड़े करीब दस करोड़ परिवारों के करीब पचास करोड़ सदस्यों को टाइप-2 व टाइप-3 रोगों के लिए अधिकतम पांच लाख रूपये का बीमा कवर प्रदान करना ।


             आयुष्मान भारत योजना के इन दोनों कंपोनेंट को जमीन पर उतारा जाना पहली नजर में ही एक महती कार्य लगता है । जिन लोगों को देश की स्वास्थ्य व्यवस्था के मौजूदा ढांचे  का पता है, वे जानते हैं  कि ये दोनो कदम देश की मौजूदा बुनियादी स्वास्थ्य व्यवस्था का कायाकल्प नहीं कर सकते । पहली बात यह कि यदि एक फिटनेस सेंटर की निर्माण लागत दस लाख रूपये भी तय की जाए तो फिर सभी डेढ लाख हाई टेक व स्टेट व आर्ट प्राथमिक स्वास्थ्य उपकेन्द्रों की स्थापना पर कुल लागत करीब पंद्रह खरब रुपये बैठेगी । दूसरी बात की आयुष्मान भारत की सार्वजनिक स्वास्थ्य बीमा योजना,जिसकी पूरी प्रक्रिया अभी ठोस रूप में निर्धारित नहीं हो पायी है,इनमे निजी अस्पतालों द्वारा बीमारियों के उपचार की दरों को लेकर सरकार से अभी अंतिम सहमति भी नहीं बन पायी है,इसका भावी स्वरूप कौन सी शक्ल लेगा, कुछ नहीं पता।  


                   जो लोग देश में स्वास्थ्य व्यवस्था में सुधारों के लाने के बजाए स्वास्थ्य बीमा की वकालत करते हैं,उन्हें यह बात पता होना चाहिए कि स्वास्थ्य बीमा ही अपने आप में भ्रष्टाचार का एक बड़ा क्षेत्र है । रोगी को सभी रोगों के लिये इसमे आसानी से कवर नहीं किया जाता है। काफी भागदौड़ करनी पड़ती है । बीमारी के इलाज के लिए वास्तविक व वाजिब खर्च के बजाय बेहिसाब ढ़ंग से इसका बिल बनाया जाता है । फिर अगला सवाल है कि क्या यह स्वास्थ्य बीमा योजना देश की इस सार्वजनिक व निजी मेडिकल व्यवस्था में विराजमान तमाम संरचनागत कमियों और अनगिनत भ्रष्टाचार का खात्मा कर पाएगी ? मोदी सरकार के आगमन के समय तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन द्वारा डाक्टरों के लिये यह दिशानिर्देश जारी किया गया था कि वे रोगी के लिये पैथोलॉजी बेहद जरूरी परिस्थितियों में ही करायें । दूसरा निर्देश यह जारी हुआ कि डाक्टर किसी दवा कंपनी के प्रचार प्रतिनिधि के आग्रह पर उस दवा का नुख्सा नहीं देंगे । इसके लिये दवा कंपनियों के प्रतिनिधि पर डाक्टरों को किसी भी आग्रह पर दंड का भी प्रावधान किया गया ।


            परंतु इन दोनो कदमों पर अभी तक प्रभावी रूप में अमल नहीं हो पाया । आज समूची ऐलोपैथी चिकित्सा प्रणाली पैथोलाजिस्ट व ड्रग्स कंपनी के एमआर और निजी अस्पतालों के सिंडिकेट के जरिये चलायी जा रही है,जिसमे रोगी के परेशानी और पैसे की कीमत पर इस व्यवसाय को अंजाम दिया जाता है । अब सवाल है कि पैसे वालों के लिए तो प्राइवेट अस्पताल आ चुके हैं, जहाँ एक एक ऑपरेशन के लिए डेढ़ से दो लाख रुपये लिया जाता है । जबकि ये अस्पताल खुलते हैं चैरिटी के नाम पर । करों की भारी चोरी की जाती है दूसरी तरफ रोगी की  जेब काटी जाती है । सीएजी की कई रिपोर्टें इस बात का खुलासा कर चुकी हैं । मोदी सरकार दवाओं को सस्ती दरों पर मुहैय्या करने के लिये जेनरिक दवाओं के प्रचलन बढ़ाने का प्रयास कर रही है जबकि हकीकत यह है कि फार्मा कंपनियों व इनके रिटेलरों द्वारा इन दवाओं पर 115 प्रतिशत से लेकर 360 प्रतिशत तक का मुनाफा मार्जिन लिया जाता है।


               मोदी सरकार ने हार्ट स्टंट व नी रिप्लेसपेंट प्लेट के दामों में भारी कमी लाने का जरूर फरमान लाया, परंतु अस्पतालों द्वारा बड़ी मुश्किल से इन उपकरणों को सरकार द्वारा निर्धारित दरों पर उपलब्ध कराया जा रहा है । सच्चाई तो यह है कि बेहतर क्वालिटी के नाम पर इन उपकरणों को अभी भी महंगे दामों पर दवा कंपनियों व निजी अस्पतालों द्वारा बेचा जा रहा है । एक रिपोर्ट के मुताबिक देश के बड़े अस्पतालों द्वारा रोगी की जरूरत के सामानों पर 1700 गुना ज्यादा मुनाफा कमाया जाता है । मोदी सरकार ने इस प्रवृति पर नकेल लगाने के लिये देश भर में करीब तीन हजार जनऔषधि केन्द्र स्थापित किये,परंतु एक तो इन औषधि केन्द्रों के बारे में लोगों को पता नहीं होता, दूसरा यहां दुकानदार मौजूद नहीं होता,सभी दवाएं यहां नहीं मिलतीं ।


                             ऐसे में अंत में मजबूर होकर निजी दवा दुकानों की शरण लेनी पड़ती है ।


भारत में स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली अपने चरम पर है ।  देश के सबसे निचले पायदान पर स्थित प्राथमिक  स्वास्थ्य केन्द्रों से लेकर चिकित्सा के सर्वोच्च संस्थान एम्स तक सब जगह बदहाली का आलम है । अस्पतालों की हालत तो ये है कि लगता है जैसे वहाँ रोगी नहीं बल्कि  भेड़ बकरियों की भीड़ लगी हो । अस्पताल में मानो आप रोग दिखाने नहीं कोई आंदोलन करने आए हों । डॉक्टरों के मन में रोगी के प्रति कोई मानवीयता और संवेदना आज रह ही नहीं गयी है। उन्हें सिर्फ मनी की फिक्र है । भारत में चिकित्सा के क्षेत्र में व्याप्त विद्रूपताएँ और विषमताएँ सिर्फ अस्पतालों और डॉक्टरों के संस्थागत संरचना को लेकर नहीं है, चिकित्सा की विभिन्न प्रणालियों के प्रचार और उसकी उपयुक्तता को लेकर भी हैं । स्वास्थ्य रक्षा के क्षेत्र में सरकारी क्षेत्र,निजी क्षेत्र और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आगमन की नीति क्या हो, इसको लेकर भी हैं ।


             इन तीनों क्षेत्रों में आनी वाली चिकित्सा संस्थाओं को रोगी के च्वायस पर छोडक़र नहीं चला जा सकता। यह सबको मालूम है कि सरकार देश की सवा अरब की आबादी की संपूर्ण चिकित्सा जरूरत को केवल अपने भरोसे नहीं चला सकती । इसके लिए निजी और विदेश निवेश की भारी दरकार है। मजे की बात ये है कि देश के दक्षिणी राज्यों में अधिकतर चिकित्सा कार्य निजी क्षेत्र द्वारा किया जा रहा है, इसके बावजूद वहां चिकित्सा शुल्क काफी कम है ;क्योंकि वहां एक तो मेडिकल एजुकेशन फील्ड में काफी प्लेयर मौजूद हैं,दूसरी बात वहां डॉक्टरों की बहुतायत है। कर्नाटक में पढ़ायी कर रहे एक एमबीबीएस छात्र के मुताबिक कर्नाटक के तमाम शहरों में 25 से 100 रुपये तक की फीस लेकर रोगी का चेकअप किया जाता है। उत्तर भारत में यह संभव नहीं है ।


                           एक और बात है कि सरकार प्राइवेट अस्पतालों में रियायती जमीन देने के एवज में 25 प्रतिशत बेड गरीब मरीजों के लिए आरक्षित करने की बात करती है । लेकिन पहली बात तो यह कि कोई गरीब मरीज अपोलो या मैक्स जैसे अस्पतालों में जाने की हिम्मत ही नहीं करता है । सरकार को चाहिए कि इन अस्पतालों के शुल्कों का निर्धारण इस तरह करे जिससे कि कम से कम एक लोअर मिडल क्लास का रोगी भी वहाँ इलाज के लिए जा सके । इससे सरकारी अस्पतालों में भीड़ भी कम होगी। अभी तो स्थिति ये है कि आप प्राइवेट अस्पताल में जाएँ यदि रोगी को वार्ड में भर्ती की जरूरत नहीं भी है तो भी उसको पैसे की लालच में भर्ती करने के लिए कहा जाएगा दूसरी तरफ सरकारी अस्पतालों का आलम ये है कि रोगी कितनी भी गंभीर हालत में हो, उसे बेड नहीं मिल पाता है ।


                     यह भी हो कि  देश में चल रहे सभी क्लिनिकों में डाक्टर की फीस की दरें, रोग जांच की दरें, दवाओं की दरें,अस्पताल बेड व रूम की दरें,चिकित्सा व सर्जरी उपकरणों की दरें, अंग प्रत्यारोपण की लागत, मरीज की आपातकालीन सेवाओं, प्रसूति व टीकाकरण के तौर तरीके, इन सबका समाधान केन्द्र, राज्य व जिला स्तर पर गठित त्रिस्तरीय स्वास्थ्य नियमन प्राधिकरण तथा प्राइवेट पब्लिक पार्टनरशिप के जरिये ज्यादा बेहतर तरीके से निकाला जा सकता है । इस कदम का विकल्प स्वास्थ्य बीमा नहीं बल्कि स्वास्थ्य नियमन प्राधिकरण व निजी-सार्वजनिक साझेदारी तथा इनमें आपसी प्रतियोगिता से ही संभव है,जिससे सरकारी, निजी व गैर सरकारी संगठन सभी चिकित्सा संस्थान वाजिब दरों पर स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैय्या कर सकेंगे। इससे देश में स्वास्थ्य सुविधाएं भी टेलीकाम सेवाओं की तरह अर्थव्यवस्था और समाज दोनों में विन-विन की स्थिति पैदा कर सकेंगी ।स्वास्थ्य बीमा प्रणाली तो देश में बस एक नये तरह के भ्रष्टाचार को जन्म देगी जिससे बेहद मानवीय पहलू वाले इस स्वास्थ्य व्यवस्था के कारपोरेटीकरण को महज एक नया आयाम प्राप्त होगा।