अभिजीत बनर्जी का नोबल विजित होना

  अभिजीत बनर्जी का नोबल विजित होना

मनोहर मनोज 
कल के दिन सभी भारतीयों को  जिस खबर ने बेहद गुदगुदाया वह था 58 वर्षीय भारतीय अर्थशास्त्री अभिजीत बनर्जी का इस साल का अर्थशास्त्र का नौबल पुरस्कार जीतना। अभिजीत बनर्जी को यह पुरस्कार उनकीे फ्रांसीसी अमेरिकी अर्थशास्त्री पत्नी एस्थर डूफ्लो और माइकल क्रेमेर के साथ संयुक्त रूप से मिला। नौबल कमेटी ने इन तीनों शख्सियतों को अर्थशास्त्र के नौबल से नवाजे जाने की जो वजह बतायी वह ये थी कि  इन अर्थशास्त्रियों द्वारा विकासवादी अर्थशास्त्र के अध्ययन को बढावा देने की निरंतर पहल की गई। दूसरा इन अर्थशास्त्री त्रय द्वारा वैश्विक निर्धनता को लेकर दुनिया के कई देशों में नमूने सर्वेक्षण के जरिये सामाजिक आर्थिक विकास के कार्यक्रमों के प्रभावों की असलियत का पता लगाया गया। अर्थशास्त्र के इस नौबल पुरस्कार के मिलने की जो ये वजहें बतायी गईं उससे यह पता चलता है कि इस पुरस्कार का एक भारतीय बंगाली अर्थशास्त्री द्वारा जीता जाना तो भारत के लिए बेहद गौरवपूर्ण है हीं परंतु ही इस पुरस्कार के मिलने की वजह भी भारत के लिए कम  महत्वपूर्ण नहीं । वह बंगाल जो भारत को सबसे ज्यादा नौबल पदक दिलवा चुका है, वह बंगाल जो भारत में एक तरफ नौबल पुरस्कारों का तो दूसरी तरफ अर्थशास्त्र का एक बड़ा ज्ञाता है, जब भारत के अनेकानेक विश्वविद्यालयों में बंगाली फैकल्टी की बड़ी जमात दिखती है, उसी में यह एक नयी कड़ी है। बताते चलें कि भारत सहित दुनिया के करीब अस्सी देशों में इस नौबल विजित अर्थशास्त्री जोड़े ने निर्धनता निवारण के चल रहे तमाम सामाजिक आर्थिक कार्यक्रमों की अकादमिक तरीके से भी और जमीनी प्रतिदर्श सर्वेक्षणों के जरिये उनकी सच्चाईयों को उत्प्रकटित किया। इस अर्थशास्त्री जोड़े की खासियत ये रही कि इन्होंने 15 साल पूर्व में स्थापित अपनी संस्था जे पाल के जरिये आयोजित निरंतर सर्वेक्षणों में तमाम सच्चाई जानने की कोशिशें की जो इनके अकादमिक अर्थशास्त्र की जानकारियों में हमेशा एक एक नया आयाम जोड़ती रही है। यह कथन इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंंकि हमारा अर्थशास्त्र अभी तक  केवल अपने मौलिक सिद्धांतों की गुत्थी सुलझाने तथा स्थापित राजनीतिक विचारधारा की भांति आर्थिक विचारधारा के भी दो ध्रूवीय लड़ाई की खेमेबाजी में ज्यादा व्यस्त रहा। इस वजह से आर्थिक कदमों के मानवीय सरोकार और अंतिम पायदान पर जी रहे दुनिया के तमाम देशों के विभिन्न समुदायों पर पडऩे वाले आर्थिक असर की सच्चाई ओझल पड़ी रहती थी। येे मुद्दे जो  बिल्कुल गौण बन गए थे, इस पुरस्कार के पीछे के कारणों के जरिये अब उनका जबरदस्त अवलोकन सामने प्रकट हो रहा है। हमारा अर्थशास्त्र नीतियों, कार्यक्रमों और योजनाओं में बंद होकर जनप्रभावों पर पडऩे वाले असर से जो बिल्कुल बेखबर था उसे इन तीनों नोबल पुरस्कार प्राप्तकर्ताओं द्वारा निरंतर की गई प्रतिदर्श सर्वेक्षणों और जमीनी स्तर के सामाजिक आर्थिक अध्ययनों ने तगड़ा झटका दिया है। अर्थशास्त्र अब एक क्रियान्वन अर्थशास्त्र की तरफ रूख कर रहा है। नीतियों के निरूपण से ज्यादा अब इनका क्रियान्वन कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण होने वाला है।
बताते चलें कि भारत में नौबल पुरस्कार विजेताओं और उनमे से ज्यादातर का बंगाल कनेक् शन इस विमर्श को वैचारिक खेमेबाजी से अछूता नहीं छोड़ता। गौरतलब है कि अमत्र्य सेन को उनके आर्थिक विकास में मानव विकास की प्रमुखता की थ्योरी पर नौबल मिला पर जगदीश भगवती ने उन पर इस थ्यौरी के जरिये बाजार उपेक्षा का आरोप लगाया। हकीकत ये है नौबल पुरस्कार अब थ्यौरी पर नहीं बल्कि संस्थाओं द्वारा जनहित में किये गए काम पर ज्यादा अवलंबित हो रही हैं। बांगलादेश के अर्थशास्त्री और ग्रामीण बैंक के संस्थापक मोहम्मद यूनूस जिन्होंने वित्तीय समावेशीकरण का बांगलादेश में महती कार्य किया, उन्हें भी नौबल पुरस्कार दिया गया।

अभिजीत बनर्जी का अकादमिक सफर वैसे ही विश्वव्यापी है जैसा उनका विश्वव्यापी विकासवादी अर्थशास्त्र का अध्ययन। महाराष्ट्रियन मां और बंगाली पिता के पुत्र अभिजीत मुंबई में स्कू ली शिक्षा, कोलकाता के आइकन कालेज प्रेसीडेन्सी से स्नातक, जेएनयू से एमए तथा हार्वड से पीएचडी, प्रिन्सटन अमेरिका में तीन साल का अध्यापन का कार्य, हावर्ड में एक साल का अध्यापन और फिर 1993 से फोर्ड फाउंडेशन द्वारा संचालित एमआईटी में लगातार अध्यापन कार्य। पर सबसे महत्वपूर्ण पहल अभिजीत ने 2003 में की जब उन्होंने अपनी पत्नी डूफ्लो तथा एक और भारतीय शिकागो विवि के सेन्थिल मुलेननाथन के साथ मिलकर अब्दूल लतीफ जमील पोवर्टी एक् शन लैब जो संक्षेप में जे पाल संस्था है  बनाकर की। यह संस्था दुनिया के करीब अस्सी देशों में स्थानीय स्तर पर निर्धनता निवारण के कार्यक्रमों के कई खुलासे कर चुकी है। ये ऐसे खुलासे रहे हैं जो किसी भी आर्थिक विचारधारा विशेष के खाटी समर्थकों में से किसी को भी वैचारिक तरीके से नहीं लुभाती । इन्होंने ऐसी वस्तु स्थिति सामने प्रकट करी जो सरकारों और उनकी स्थानीय मशीनरी की कमजोरी तो इंगित करती हीं है साथ साथ ये कई स्थापित मिथकों को भी तोड़ती हैं। मिसाल के तौर पर जे पाल ने यह पाया कि अंतरराष्ट्रीय मदद जरूरी नहीं की वह अविकसित देशों के निवासियों को वास्तव में उनके उत्थान क ा वाहक बनी हैं, उनके सर्वेक्षणों से ऐसा जाहिर नहीं हुआ। अभिजीत बनर्जी और डूफलों जो निर्धनता निवारण विषय की ही प्राध्यापिका हैं, उन्होंने भारत में स्वास्थ्य, शिक्षा, माइक्रो फायनेन्स तथा कृषि के क्षेत्र में अपने कई स्थानीय सर्वेक्षण के जरिये चौकाने वाले परिणाम दिये। उन्होंने पाया कि धूएं रहित चूल्हों का ओडि़सा राज्य में जो वितरण हुआ महिलाओं ने बाद में उसका उपयोग करना बंद कर दिया। इसी तरह उन्होंने पाया कि गुजरात के बड़ोदा के प्राथमिक विद्यालयों में बच्चों को स्कूली क्लास के अलावा जब निजी ट्यूशन दिया गया तभी उनके सीखने का स्तर उन्नत हो पाया। इसी तरह इन्होंने राजस्थान में पाया कि टीकाकरण अभियान तभी सफल हुआ जब इसके कैंप सतत अंतराल में आयोजित किये गए और उन्हें इसके लिए प्रोत् साहन भी प्रदान किये गए। अर्थशास्त्र की इन दंपत्तियों का मानना है कि शिशू टीकाकरण का अभियान तभी शत प्रतिशत सफल हो सकता है जब इसके साथ पर्याप्त प्रोत्साहन राशि भी दी जाए जैसे कि उन्होंने कीनिया में इस अभियान को  सफल होते देखा। जे पाल द्वारा दुनिया भर के बच्चों को कृमि रहित करने के अभियान को काफी तवज्जों मिली। हालांकि कई लोग मानते हैं कि व्यापक अर्थशास्त्र और विकासवादी अर्थशास्त्र को चंद नमूने व प्रतिदर्श सर्वेक्षणों पर आधारित किया जाना और उसका इंपीरिकल यानी आनुभाविक स्वरूप प्रस्तुत करना कोई स्टैंडर्ड परिपार्टी नहीं है। परंतु अभिजीत और डूफ्लो का मानना है कि अर्थशास्त्र की इस अवधारणा की अभी महज एक शुरूआत हुई है जो आगे एक बड़ी मुहिम का स्वरूप लेगी ।
कहना ना होगा अर्थशास्त्र के समक्ष आज भी सबसे पहला प्रश्र उत्पादन ही है उसके बाद ही वितरण का नंबर आता है। कुछ लोग बिना उत्पादन को तवज्जो दिये इसके वितरण के भावुक विमर्श में तल्लीन हो जाते हैं। ये निर्धनों के लिए सिर्फ इमोशन दे सकते हैं, क्रियेशन नहीं। भारत ने भी क्या देखा, 1990 तक समाजवादी व साम्यवादी जुमले और नारे बेहद प्रबल थे, प्रो0 राजकृष्णा के हिंदू आर्थिक विकास दर कीे तीन प्रतिशत की अवधारणा मेंं ये  उलझे थे। परंतु नयी आर्थिक नीति के बाद देश में बाजारवादी व वैश्विकवादी तथा निजी व सरकारी गठजोड व उनकी आपसी प्रतियोगिता से जो एक नया अध्याय शुरू हुआ उसके तहत ट्रिकल डाउन थ्यौरी ही आखिरकार गरीबों का सबसे बडा रखवाला बनी और गांव के करोड़ों निर्धनों को शहरों का वह आशियाना मिला जो उन्हें रोजगार दे रहा था। जो लोग अभिजीत बनर्जी के अर्थशास्त्र में वामपंथ का अक् श ढूंढ रहे हैं उन्हें नहीं मालूम कि पहले वामपंथ भी कार्यक्रमों के क्रियान्वन में बुरी तरह फेल हुआ और  पूंजीवाद में भी वह समस्या जस की तस है। पता नहीं अभिजीत बनर्जी की मान्यता क्या है? परंतु क्रियान्वन करने वाली एजेंसी नौकरशाही है जो भ्रष्ट भी है और अपारदर्शी भी और असंवेदनशील भी । तभी तो नव नौबल विजेता अभिजीत भी ड्राइविंग लाइसेंस में रिश्वत रोकने और शिक्षकों की क्लासरूम में उपस्थिति के निरीक्षण के लिए तकनीक का इस्तेमाल क रने तथा उनकी पत्नी माइक्रो फाइनेंस के  कर्जे को चुकाने में बेहद तत्परता दिखाये जाने का निस्कर्ष निकालती हैं। जाहिर है कि देश में व्यवस्था परिवर्तन बडा सवाल है ना कि वैचारिक समूहों की खेमेबाजी। वैसे अभिजीत बनर्जी की यह मान्यता कि देश में अभी आर्थिक स्लोडाउन की वजह नोटबंदी व जीएसटी रही है, उससे मोदी सरकार को स्वीकारोक्ति का सबक जरूर लेना चाहिए। दूसरी तरफ कांग्रेस की न्याय योजना की फंडिंग कैसे होती, अभिजीत से उस खुलासे की अपेक्षा है।

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