किसानों की कर्जमाफी, एक बेहद खतरनाक पापुलिज्म
किसानों की कर्जमाफी, एक बेहद खतरनाक पापुलिज्म

मनोहर मनोज 

अभी तीन राज्यों के चुनाव में किसानों की कर्जमाफी के मुद्दे को जिस तरह से दोनो मुख्य दलों द्वारा प्रमुखता से लाया व उठाया गया, कहना ना होगा, भारतीय राजनीति की परिपार्टी का यह एक बेहद खतरनाक शगल सा बन गया है। क्या वजह है कि किसान व कृषि प्रधान देश भारत के इस राजनीतिक परिदृश्य में हमारा सत्तारूढ दल यदि शासन प्रशासन के तमाम मानकों पर अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाता है तो वह अचानक किसानों द्वारा लिये गए हजारों करोड़ के बैंक लोन को माफ करने का कदम उठा लेता है। यदि विपक्ष को सत्तारूद्व दल को परास्त करने का कोई बड़ा अस्त्र नहीं दिखता तो अचानक वह किसानों की कर्जमाफी के मुद्दे को वह अपने घोषणापत्र में शामिल कर लेता है। इन राजनीतिक दलों को क्या ये समझ में नहीं आता कि इस तरह के पोपुलिज्म देश की अर्थव्यवस्था के साथ कितना बड़ा खिलवाड़ है। यह स्थिति देश की बैंकिंग व्यवस्था और इसके संचालन का कितना बड़ा सत्यानाश करता है। सवाल है कि किसानों की कर्जमाफ ी क्या किसानों की आर्थिक स्थिति को बेहतर बना देती है? क्या यह कदम किसानों के खेती पेशा को स्थायी रूप से लाभकर बना देता है। क्या किसानों की कर्जमाफी खेती की आधारभूत सुविधाएं और परिस्थितियां बेहतर बना देती है। क्या यह कदम किसी किसान परिवार विशेष में विपदा की घड़ी में आत्महत्याएं रोक देता है। क्या यह किसानों को यह किसी तरह का फौरी राहत देती है। इन तीनों चारों का जबाब बिल्कुल ना में ही है। यदि ऐसा होता तो साल २००८ में विदर्भ में भारी सूखे तथा किसानों की आत्महत्याओं का बहाना बनाकर युपीए-1 ने २००९ चुनाव के ठीक पूर्व जो सत्तर हजार करोड़ रुपये की कर्जमाफी का चुनावी कार्ड खेला, उससेे विदर्भ में किसानों की आपदा व आत्महत्याओं का सिलसिला रुक गया होता। उल्टे इस इस कदम ने भारतीय अर्थव्यवस्था में इतनी बड़ी तबाही मचायी कि देश का वित्तीय घाटा तुरंत 4.5 फीसदी से बढक़र 6.5 फीसदी हो गया। मुद्रा स्फीति दो अंकों में पहुंच गयी और इससे उपजी घनघोर महंगाई तथा बदहाल आर्थिक परिस्थितियों ने वर्ष २०१४ में यूपीए की हार भी सुनिश्चित कर गयी। 

सबसे पहली बात ये है कि अनुसूचित बैंकों से लिए जाने कृषि कर्ज का आधा से ज्यादा हिस्सा गैर कृषि  उद्येश्यों में इस्तेमाल किया जाता है। दूसरा देश के करीब पैतालीस फीसदी छोटे किसान अभी भी स्थानीय महाजन यानी गैर संस्थागत कर्ज स्रोतों से कर्ज लेते हैं। जाहिर है सरकार की इन कर्ज माफी की घोषणाओं का फायदा वास्तविक किसानों को ज्यादा मिलता भी नहीं । अगर देश में सभी किसान की आत्महत्याओं के पीछे की परिस्थितियों की समुचित पड़ताल की जाए तो पता चलेगा कि इसकी वजह उनके खेती में जोखिमों का जंजाल तथा उसकी लागतों में बेतरतीब बढ़ोत्तरी, परंतु उसके मुकाबले आमदनी का नाकाफी होना है। यदि किसी भी किसान को यह आप्शन दिया जाए कि उसे खेती की लागत फ्री दी जाए या उनके उत्पादों का बेहतर लाभकारी मूल्य व उसका त्वरित भुगतान, तो वह बाद के विकल्प को ही चुनेगा क्योंकि उसे मालूम है कि फ्री लागत तो मिलना तो दूर पर उसकी भ्रष्टाचार की भेंट चढऩा तय है। हमे यह मानना होगा कि किसी भी कारोबार के स्थायी रूप से चलायमान बनाये रखने के लिए उसका लाभदायक होना होना जरूरी है और यह अर्थव्यवस्था के लिए भी बेहतर होता है। परंतु हमारी लोकतांत्रित राजनीति जो या तो मुख्य तौर से पहचान की राजनीति से ओतप्रोत है या फिर आर्थिक पापुलिज्म से, वहां तो विशाल किसान आबादी के वोट पाने के लिए उनकी कर्जमाफी को ही उनकी बेहतरी क ा विकल्प माना जाता है। अमीर किसानों की नुमांयदगी करने वाले किसान संगठन तथा वे सभी राजनीतिक दल जिन्हे अपने त्वरित राजनीतिक फायदे के लिए देश में सुशासन के बेहतर विजन को ताक पर रख देने से कोई गुरेज नहीं, वह सीधे सीधे किसानों की कर्जमाफी की बात करते हैं। 

किसानों की कर्जमाफी की पुरजोर पैरोकारी करने वालों द्वारा इस बात का बार बार उल्लेख किया जाता है कि कारपोरेट के पाच लाख करोड़ के कर्जमाफ कर दिये जाते हैं तो किसानों क ी कर्जमाफी क्यों नहीं की जा सकती। सबसे पहली बात कि यदि कहीं पर कोई एक महाअपराध किया जा रहा है तो उसे एवज में एक और महाअपराध किये जाने का प्रस्ताव करना कहां तक उचित है। हालांकि तथ्य ये है विगत में देश की किसी भी सरकार चाहे एनडीए की हो या यूपीए की, घोषित रूप से कारपोरेट की कोई कर्जमाफी नहीं की है। हां बैंकों से लिए गए करीब नौ लाख करोड़ रुपये के कर्जे जिसकी अदायगी नहीं की गई और वह जो अब एनपीए बन गया है, उस गैरकानूनी काम के मुख्य रूप से जिम्मेदार कारपोरेट समूह जरूर है। और इनकी यह गतिविधि बेहद कठोर कार्रवाई की पात्रता रखती है। परंतु यह इनके लिए कोई वैध कर्जमाफी नहीं है। हां, सरकारों ने यह अपराध जरूर किया कि इन हाल हाल तक एनपीए धारकों के खिलाफ कठोर से कठोर कार्रवाई नहीं की गई। शुक्र है कि अब इस दिश में देश की सरकारों का ध्यान सजग हुआ है तथा कर्ज रिकवरी न्यायाधिकरण तथा दिवालिया निस्तारण कानून पर तेजी से अमल शुरू हुआ है। परंतु इन परिस्थितियों का हम देश के किसानों की कर्जमाफी को वैध ठहराने के लिए इस्तेमाल करें तो यह कहीं से उचित नहीं है?

बेशक हमारे देश का किसान समुदाय हमारी सरकारों से सबसे ज्यादा मदद, सुविधा और सहायता पाने की पात्रता रखता है। आजादी के इतने साल के बाद अब जाकर सैद्वांतिक रूप से एमएसपी में कुछ वाजिब बढ़ोत्तरी जरूर की गई, परंतु किसानों के लिए खेती संपूर्ण रूप से लाभकारी बने, उसके लिए अभी विशाल काम किया जाना बाकी है। किसानों के लिए कर्ज सहूलियत कर देना या उस कर्जकी माफी कर देना कत्तई भी खेती के घाटे के पेशे से कोई अलग की परिस्थिति नहीं है। कर्ज की खेती ओर घाटे की खेती में कोई अंतर नहीं है। खेती को हर तरह से जोखिम मुक्त बनाना, आपदा काल में उन्हें सर्वाच्च स्तर के राहत प्रदान करना, खेती के सभी उत्पाद को लाभकारी बनाना, वैकल्पिक खेती, किसानों की वैकल्पिक आमदनी और हर किसान परिवार में पेशागत विविधता स्थापित करना ही देश के पंद्रह करोड़ किसान परिवारों की बेहतरी के प्रमुख मंत्र है। जो लोग कर्जमाफी की बात कर रहे हैं वो किसानों के वोटबैंक पाने का महज एक बेहद खतरनाक राजनीतिक खेल रहे हैं। सवाल ये है कि पिछले तीस सालों में यह खेल किसानों का क्यों नहीं भला कर पाया ।सबसे पहले १९८९ में वीपी सिंह के नेतृत्व में राष्ट्रीय मोर्चा ने किसानों के लिए कर्जमाफी का एलान किया जिसका उसे राजनीतिक फायदा मिला। २००८ में यूपीए ने सत्तर हजार करोड़ की कर्जमाफी का एलान किया। अभी युपी में भाजपा ने सरकार में आते ही अपने चुनावी वादे के तहत किसानों की कर्जमाफी का प्रस्ताव लेकर आयी। चुनावी रा ज्य राजस्थान की मौजूदा बसुंधरा सरकार ने इस साल में किसानों की कर्जमाफी का प्रस्ताव लेकर आई। अभी मध्यप्रदेश में राहुल गांधी ने किसानों की कर्जमाफी के वादे कर रहे हैं। विगत में ज्यादातर राज्यों के चुनाव में राजनीतिक दलों ने किसानों की कर्जमाफी को ही अपना चुनावी मास्टरस्ट्रोक माना है । परंतु सबसे बड़ा सवाल देश की बैंकिंग व्यवस्था को तार तार करने वाले इस राजनीतिक पापुलिज्म से क्या किसानों का वास्तव में भला हो पाता है। अब वक्त आ गया है कि कर्जमाफी, बिजली शुल्क माफी, लगान माफी, कर माफी जैसे अर्थव्यवस्था को बीमार करने वाले कदमों से प्रतिबंधित किया जाए और किसानों के वास्तविक भलाई, समृद्वि व राहत के लिए एक स्थायी नीति और असरकारी संस्थागत स्वरूप का निर्धारण किया जाए।