मोदी सरकार के लिए सबसे बड़े आर्थिक मुसीबत का दौर
मोदी सरकार के लिए सबसे बड़े आर्थिक मुसीबत का दौर 

मनोहर मनोज

अपने कार्यकाल के शुरूआती साल में एक चुनावी सभा के दौरान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बड़े ही दर्प से यह बात कही कि अंतरराष्ट्रीय कच्चे तेल की कीमतों में गिरावट आयी है, तो यह मेरा सौभागय है, इससे मेरे विरोधियों को क्यों जलन हो रही है। आज मोदी सरकार के लिए स्थिति बिल्कुल उल्टी हो गयी है। कच्चे तेल की कीमतें आसमान छू रही हैं। फिर प्रधानमंत्री अब क्या कहेंगे कि यह मेरा दूर्भागय है। भई, जनता को आपके सौभागय और दूर्भागय से क्या लेना देना। जनता को तो आपके समुचित प्रशासन,समयोचित फैसलों,ईमानदार नीयत तथा सुविचारित नीतियों से मतलब है। कहना ना होगा अभी मोदी सरकार के लिए आर्थिक परिस्थितियां कमोबेश पिछले यूपीए शासन के अंतिम साल की परिस्थितियों की याद दिला रही है। अभी चालू व्यापार घाटा तो ठीक वैसे ही उंचाइयों को छू रहा है। निर्यात में समुचित बढ़ोत्तरी नहीं हो पाने, आयात पर प्रभावी नियंत्रण नहीं हो पाने तथा कच्चे तेल की अंतरराष्ट्रीय कीमतों में लगातार बढ़ोत्तरी होने से देश पर डालर भुगतान का जो व्यापक मात्रा में बोझ बढ़ा है उसी से तो रुपये की कीमतों में अभूतपूर्व गिरावट आई है। दूसरी तरफ रुपये में हो रही गिरावट  से हमारा आयात बिल बढ़ रहा है और निर्यात सस्ता होने के बावजूद इसमे वांछित बढ़़ोत्तरी नहीं हो पा रही है। यानी रुपये की डालर की तुलना में गिरावट अभी हमारे आर्थिक संकट का परिणाम भी बना है और उस संकट का कारण भी। इसी तरह मुद्रा स्फीति की बात की जाए तो मोदी सरकार के शुरूआती वर्ष में दाल व प्याज की कीमतों में जो अभूतपूर्व बढोत्तरी हुई थी उस वाक्ये को यदि छोड़ दे तो मोदी सरकार में मुद्रा स्फीति की स्थिति कमोबेश नियंत्रण में रही है। पर अब पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों में जिस तरह से लगातार बढ़ोत्तरी हो रही है उसका देर सबेर मुद्रा स्फीति पर भी असर पडऩा तय है। जिस तरह से पहले कच्चे तेल की कीमतों में गिरावट आने पर प्रधानमंत्री मोदी इतरा रहे थे वह मामला जिस तरह से अभी उलट गया उसी तरह से मुद्रा स्फ ीति को नियंत्रित रखने की मोदी सरकार की मौन इतराहत भी आने वाले दिनों में समाप्त हो सकती है। तीसरा मोदी सरकार के उसके अपने आर्थिक मोर्चे पर आत्मविश्वास भरे इतराहट का एक मजबूत बिंदू ये था कि पिछले चार साल के दौरान बीएसई सेन्सेक्स ने करीब बीस हजार अंकों की उछाल दर्ज हुई थी, जो स्थिति यूपीए के दौरान तो बिल्कुल नदारथ थी। पर अब इस शेयर बाजार के भी औंधे मुंह गिरने की कवायद शुरू हो चुकी है। पिछले तीन महीनों के दौरान बीएसई सेन्सेक्स में करीब 5000 अंकों की गिरावट हो चुकी है। कुल मिलाकर लब्बोलुआब ये है कि कोई सरकार अपने अनुकूल घटने वाली घटनाओं पर इतरा नहीं सकती क्योंकि कब जाने घटनाएं बेहद प्रतिकुलता की तरफ सरक जाएं। किसी भी सरकार केे इतराने का सबसे बेहतर पैमाना उसके द्वारा सिस्टम के फंडामेन्टल्स पर किया गया काम ही हो सकता है। क्योंकि औसत का नियम एक नैसर्गिक नियम है जिसमे कोई भी व्यक्ति, संस्था या मुल्क अपने वास्तविक कामों और सुधारों का ही प्रतिफल हमेशा के लिए पा पाती है और अनुकूल व प्रतिकुल घटनाओं का एक न एक दिन अंतिम हिसाब निकल ही जाता है। ऐसे में देखें तो मौजूदा समय मोदी सरकार के लिए आर्थिक लिहाज से बेहद संकटपूर्ण भी है तथा चुनौतीदायक भी है। संकटदायक इस लिहाज से कि अभी देश के चार महत्वपूर्ण राज्यों में विधानसभा चुनाव है तथा करीब छह माह बाद देश में लोकसभा चुनाव तथा आधे दर्जन राज्यों के विधानसभा चुनाव आसन्न हैं।

मोदी सरकार ने जहां स्पेक्ट्रम लाइसेंस को निविदा आधारित बनाकर तथा केन्द्र सरकार के करीब 85 योजनाओं को आधार के साथ जोडक़र करीब दो लाख करोड़ करोड़ का अतिरिक्त राजस्व या कहे बचत प्राप्त किया, इसके बावजूद कच्चे तेल के मूल्य में विगत में हुई समूची गिरावट को इसने लोगों को ना स्थानांतरित कर उस पर कर बढोत्तरी कर अपने सालाना राजस्व में करीब 75 हजार करोड़ की बढ़ोत्तरी की। मोदी सरकार के एक मंत्री ने पेट्रोल पर करों में कटौती के सवाल पर जब यह जबाब दिया कि या तो विकास चुन लो या कीमत में कटौती ले लो। ऐसा कहने का कोई पैमाना नहीं बनता। क्योंकि विकास प्रोत्साहित करने का मतलब यह नहीं कि लोगों पर कीमतों का भारी बोझ लाद दिया जाए। विकास के लिए सभी लीकेज भर कर तथा तमाम तरह के भ्रष्टचार बंद कर संसाधन जुटाया जाना किसी भी सरकार के बेहतर प्रदर्शन की सबसे बड़ी कसौटी है। पर इस मामले में मोदी सरकार ने कोई बड़ी मिसाल कायम नहीं की। मोदी सरकार आर्थिक मामलों में शुरूआती तौर पर एक स्पष्ट सोच के साथ जरूर आयी थी जिसमें लोकलुभावन योजनाओं के बजाए सामाजिक आर्थिक रूप से ठोस सशक्तीकरण वाली योजनाएं शामिल थी। जैसे कि उज्जवला और सौभागया योजना ग्रामीण आबादी को ईंधन और रोशनी देने वाली एक सराहनीय योजना थी। इसी तरह से कृषि बीमा और देर से सही एमएसपी में भारी बढ़ोत्तरी के फैसले बेहतर हैं। इसी तरह बेरोजगारों के छोटे मोटे उद्यम चलाने के लिए मुद्रा बंैक योजना तथा देर से ही सही गरीब आबादी के लिए स्वास्थ्य बीमा सही थीं । पर इस सरकार ने सबसे बड़ी गलती अपने कार्यकाल के मध्य में कर दी, क्योंकि उस वक्त मोदी सरकार की स्पष्ट आर्थिक नीतियों की वजह से अर्थव्यवस्था की विकास दर के दहाई अंक में जाने की पुरजोर संभावना बनी थी क्योंकि इस सरकार के पहले व दूसरे साल के दौरान विकास दर सात से आठ फीसदी के आसपास जा चुकी थी। परंतु मोदी सरकार ने देश की भ्रष्टाचार की विकराल समस्या पर कोई एक व्यापक व बेहतर पहल ना दिखाकर इसके बदले अपनी पीठ झूठे तरीके से ठपठपाए जाने का एक निहायत मूर्खतापूर्ण कदम विमुद्रीकरण के जरिये उठा लिया। यह एक ऐसा कदम था जिससे देश के बड़े भ्रष्टाचारी तो सुरक्षित रहे पर मध्यम दर्जे के कुछ नकद कारोबारी और समूची आम जनता पूरी तरह से क्षतविक्षत हो गई। इसके बाद भी इस कदम से देश की आम आबादी व अर्थव्यवस्था अभी संभल भी नहीं पायी तबतक बिना पूरी तैयारी के तथाकथित कर क्रांति का आधा अधूरा माडल जीएसटी के रूप में ला दिया गया। इससे देश की अर्थव्यवस्था के तमाम गतिशील कारक सुस्त से पड़ गए। देश में आमदनी, रोजगार, उपभोग, निवेश, बचत सब पर इसका गहरा असर पड़ा।  इसका नतीजा ये हुआ कि हमारे देश की अर्थव्यवस्था जिसका सबसे मजबूत पक्ष इसकी घरेलू मजबूती रही, वह कमजोर होती गयी और इस वजह से यह विदेशी व्यापार, विदेशी मुद्रा और विदेशी निवेश की प्रतिकुल परिस्थितियों को यह ढंग से झेल नहीं पा रही है। इसी का नतीजा है भारतीय रुपये में आई यह अभूतपूर्व गिरावट। आने वाले दिनों में मुद्रा स्फीति की दर यदि नियंत्रण में नहीं रही तथा निवेश उत्पादन का वातावरण बेहतर नहीं हो पाया तो यह मौजूदा आर्थिक संकट मोदी सरकर के लिए अगले चुनाव में राजनीतिक संकट का भी सबब बन जायेगा।