कर्जमाफी बनाम किसान राहत योजना

कर्जमाफी बनाम किसान राहत योजना


मनोहर मनोज


नरेन्द्र मोदी नीत मौजूदा एनडीए सरकार ने चुनाव के पहले प्रधानमंत्री किसान योजना के रूप में अपना अंतिम पाशा फेंक दिया। अंतरिम बजट की घोषणा के मुताबिक इस योजना के तहत देश के करीब बारह करोड़ किसानों के खाते में प्रति माह पांच सौ रुपये के हिसाब से हर चार महीने की दो हजार रुपये की राशि उनके बैंक खाते में जमा हो जाएगी। गोरखपुर में आयोजित एक कार्यक्रम के जरिये प्रधानमंत्री मोदी जब इस योजना का पिछले इतवार घोषणा कर रहे थे, तब उनके चेहरे पर आगामी चुनाव को लेकर दिखने वाला आत्मविश्वास साफ साफ दिख रहा था। पर सवाल है कि इस सरीखे पहल से सदैव ही परेशानियों से त्रस्त रहने वाला देश का किसान समुदाय जो भी थोड़ा मौद्रिक राहत महसूस करेगा, वह पहल भी इसी लोकसभा चुनाव के आगमन के ऐन वक्त का ही क्यों इंतजार कर रहा था? दूसरी बात कि क्या यह कहना सही नहीं होगा कि भारत के इस प्रतियोगी लोकतत्र ने मौजूदा मोदी सरकार को इस तरीके की योजना की पहल करने के लिए बाध्य किया। जाहिर है कि तीन राज्यों में कांग्रेस को मिली जीत के पीछे किसानों की कर्ज माफी योजना की काट के लिए अब प्रधानमंत्री मोदी ने अगले लोकसभा चुनाव क ो ध्यान में रखते हुए अपना यह नया किसान कार्ड खेला है। इसे देखते हुए आज अर्थशास्त्रियों के लिए भी यह एक बड़ा मसला बन गया है कि आखिर किसानों का हित उनकी कर्जमाफी में छिपा है, या उन्हे फौरी राहत देने में या उनके वास्तविक सशक्तिकरण के उपायों में। उनके पेशे को लाभकारी बनाये जाने में छिपा है या फिर उन्हें महज निर्वाह पेशा बनाये रखने में। उनकी उत्पादकता और आमदनी बढ़ाने के उपायों में छिपा है या उन्हें महज लल्लीपोप थमाने में।


 किसानों की कर्जमाफी जैसी पहल तो किसानों की माली हालत सुधारने की वह तरकीब रही है जिसके जरिये अर्थव्यवस्था के हितों की बड़ी भारी तिलांजलि देनी पड़ती है और उसकी दुष्परिणति हमें तेज मुद्रा स्फीति और तेजी से बढ़ती महंगाई के रूप में उन्हीं किसानों व आमजनों को झेलते हुए देखनी पड़ती है। इसकी सबसे बड़ी मिसाल हम २०09 के लोकसभा चुनाव के दौरान यूपीए द्वारा करीब 70 हजार करोड़ रुपये की किसान कर्जमाफी के रूप में देख चुके हैं जो यूपीए 1 के लिए 2009 चुनाव में गेमचेंजर तो साबित हुआ पर वही फैसला दीर्घअवधि में जाकर 2014 चुनाव में उनके लिए इलेक्शन लूजर साबित हुआ। यूपीए की कर्जमाफी व मनरेगा जैसी योजना कथित तौर पर हाशिये पर खड़ी आबादी को इनक्लूड करने के बजाए उन्हें घोर महंगाई के जरिये और एक्सक्लूड ही कर गयी, ठीक वैसे ही जैसे मौजूदा मोदी सरकार की नोटबंदी व जीएसटी भ्रष्टाचार तो दूर नहीं कर पायी परंतु देश की रोजगार अर्थव्यवस्था का जरूर कबाड़ा कर गयी।


ऐसा नहीं है कि कर्जमाफी जैसे काम की चैंपियन केवल कांगेस पार्टी ही है। पिछले यूपी विधानसभा चुनाव में बीजेपी भी तो यही कार्ड खेलकर चुनाव जीती थी। पर आज की तारीख में लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखकर यदि कांग्रेस के कर्ज माफी व बीजेपी की किसान को नकद राहत देने की तो दोनों में से अर्थव्यवस्था के हित की दृष्टि से किसान पेंशन योजना को ही ज्यादा ठीक मानना पड़ेगा। इसकी वजह ये है कि किसी भी सरकार द्वारा समाज के हर कमजोर तबके को सामाजिक सुरक्षा के रूप में चाहे पेंशन दिया जाए या कोई और फौरी आर्थिक राहत दिया जाए, वह हर तरह से एक बढिय़ा कदम माना जाता है।


कहना ना होगा देश के किसान की माली हालत अभी देश के सामने एक बड़े विमर्श का मुद़्दा है। और मौजूदा मोदी सरकार जिसने 2022 तक किसानों की आमदनी को दोगुना करने का वादा किया है, उसे देखते हुए यह विमर्श तो और भी महत्वपूर्ण हो गया है।  परंतु इस सबके बावजूद मौजूदा मोदी सरकार के सामने एक बड़ा ही वाजिब प्रश्र खड़ा है कि किसानों को लेकर कुल तीन बड़े फैसले जो इस सरकार ने अपने कार्यकाल में लिए, जिसमे पहला फैसला संपूर्ण कृषि बीमा योजना, दूसरा किसानों के उत्पादों की एमएसपी में पचास फीसदी बढ़ोत्तरी की घोषणा और तीसरा अभी पांच एकड़ तक के भूस्वामी किसानों को एक तरह से पांच सौ रुपये की माहवार पेंशन देने की यह पीएम किसान योजना, इन तीनों में से बाद की दो योजना को महज चुनावी साल में ही क्यों लाया गया। किसान बीमा योजना तीन साल पहले जरूर लायी गई परंतु इसके जरिये देश में किसान की खेती को पूरी तरह से जोखिम मुक्त किये जाने की बात निजी बीमा कंपनियों के लिए मुनाफा कारोबार की योजना में तब्दील हो गई? जाहिर है किसान बीमा योजना के तहत किसानों के हर जोखिम का हर्जाना ठीक तरह से मिल पा रहा है या नहीं, उसकी जबतक कोई बड़ी सोशल आडिट नहीं होगी, उसका पता लगा पाना कठिन होगा। दूसरा कि एमएसपी में पचास फीसदी बढ़ोत्तरी की घोषणा का सारा दारोमदार तो समूची एमएसपी प्रणाली के चाक चौबंद तरीके से क्रियान्वित होने पर निर्भर करता है, जो है नहीं। हकीकत ये है कि केवल चावल और गेहूं की एमएसपी प्रणाली ढंग से क्रियान्वित हो पाती है। बाकी करीब तीस उत्पादों का सीजन में लाभकारी मूल्य मिल पाना भगवान भरोसे ही है। दूध, गन्ना व कपास जिसमे किसानों को थोड़ा बहुत लाभकारी मूल्य मिल पाता है उसमे समय पर भुगतान ना हो पाना सबसे बड़ी समस्या है। एमएसपी में बढ़ोत्तरी को जब तक हम न्यूनतम व अधिकतम मूल्य प्रणाली को कानूनी रूप नहीं देंगे, उसे प्रभावकारी तरीके से लागू नहीं कर सकते।


जहां तक पीएम किसान योजना का सवाल है तो वह एक तरह से किसानों के लिए नकद सौगात  ही लगता है। अच्छा तो यह होगा मोदी सरकार इस योजना को दीर्घकालीन किसान पेंशन योजना के रूप में ही बदल दे और अगले तीन सालों में किसानों की आमदनी दोगुनी बढ़ाने क ो लेकर एक नयी किसान आमदनी बढोत्तरी योजना का श्रीगण्ेाश करे जिसमें खेती और उसके सभी सहयोगी पेशों को एक उद्योग का स्टेटस मिले। इसके जरिये हर किसान परिवार में बहुविध पेशों के अपनाने का प्रचलन बढ़ाया जाए यानी एक किसान परिवार में एक सदस्य खेती करे, दूसरा व्यापार, तीसरा नौकरी यानी यानी। और यह कदम तबतक चलायी जाए जबतक खेती पर निर्भर आबादी के उत्पादों का योगदान सकल घरेलू उत्पाद में किये जाने योगदान के ठीक बराबर  ना हो जाए। यानी हमें एक तरफ खेती पर निर्भर करीब साठ फीसदी आबादी जो अभी सकल घरेलू उत्पाद में सिर्फ 15 फीसदी का योगदान करती है उसमे निर्भर आबादी को आधा यानी तीस फीसदी और इनकी आमदनी को दोगुना यानी तीस फीसदी लाकर संतुलन प्रदान करना चाहिए।