फ्री मेट्रो, पोलीटिकल पोपुलिज्म की पराकाष्ठा

फ्री मेट्रो, पोलीटिकल पोपुलिज्म की पराकाष्ठा


मनोहर मनोज


भारत में पहचान की राजनीति तो देश के राजनीतिक प्लेयरों के लिए सदैव से स्योर शाट रहा, पर अब इसके साथ पोपुलिज्म की राजनीति का तडक़ा भी तेजी से परवान चढ़ रहा है। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल द्वारा दिल्ली के महिलाओं के लिए मेट्रो और बस सेवाएं फ्री किये जाने की घोषणा तो ऐसे पोलीटिकल पोपुलिज्म की तो पराकाष्ठा है। लोगों के मतों को लुभाने के लिए देश में पोलीटिकल एडवेंचरिज्म इस कदर बढ चुकी है कि क्या समाज और क्या अर्थव्यवस्था सभी को हमारे राजनीतिक प्लेयर बली बेदी पर चढ़ाने में कोई हिचक नहीं दर्शाते। यह बात अलग है कि दिल्ली में विधानसभा चुनाव के ठीक सात महीने पहले दिल्ली की मौजूदा सरकार द्वारा जो यह कदम घोषित किया गया, उसकी पूरी तैयारी में बतौर दिल्ली सरकार तीन महीने लग जाएंगे और केन्द्रीय शहरी विकास मंत्रालय के मातहत मूल रूप से संचालित होने वाली दिल्ली मेट्रो के मुताबिक इस तैयारी में आठ महीने का वक्त लग जाएगा। जाहिर है इस घोषणा को लेकर केन्द्र शासित भाजपा और दिल्ली शासित आप पार्टी के बीच एक पूरी राजनीतिक रस्साकशी का नजारा आने वाले दिनों में देखने को मिलेगा। परंतु इस कदम से मेट्रोमैन ई श्रीधरन बिल्कुल बिफर गए हैं और उन्होंने इस सरीखे कदम से देश के विभिन्न राज्यों में कार्यरत मेट्रो सेवाओं के आर्थिक संबल व उनके विस्तार पर भारी दुष्प्रभाव की आशंका जताई है। दिल्ली सरकार के  मुताबिक इस कदम से उसके राजखजाने पर करीब 800 करोड़ रुपये का भार आएगा। बताते चलें कि इसके पूर्व आप पार्टी अपनी बिजली पानी की गेमचेंजर योजनाओं पर करीब 800 करोड़ की और सब्सिडी वहन करती है। यानी कुल मिलाकर आप पार्टी अपने इस पोलीटिकल बैटल के लिए करीब 1600 करोड़ का भार अपने राजखजाने पर डालती है। जाहिर है यह राशि दिल्ली की आधारभूत संरचना क े निर्माण की कीमत पर खरची जा रही है। कहना ना होगा कि किसी भी सरकार का उसके अपने निवासियों के लिए प्राथमिकता क्या हो, हमे यह बात हमेशा के लिए निर्धारित कर लेना होगा? इसमे कोई दो राय नहीं कि किसी भी राजनीतिक दल की सरकार का उसके अपनी निरीह व साधनहीन जनता को पूरी राहत देना, उनकी सभी कल्याणकारी मदों पर पर्याप्त खर्च करना सर्वाेच्च प्राथमिकता होनी चाहिए। किसी भी सरकार का यह प्रमुख राजधर्म होना चाहिए कि वह आपदा काल में पीडि़तों को राहत की सभी सुविधाएं दे। दूसरा भूखे, निराश्रित, अपंग, अनाथ, वृद्ध को उसकी हर जरूरत प्रदान करें या उन्हें इनकी प्राप्ति की परिस्थितियां उत्पन्न करें। तीसरा निर्धनों क ो शिक्षा-स्वास्थ्य जैसे मानव विकास के मुहैय्या की गारंटी तथा मध्य वर्ग को इन्हें नियमन प्राधिकरण के मातहत निर्धारित व प्रतियोगी मूल्य पर मुहैय्या कराये। चौथा सभी असंगठित वर्ग के मजदूरों के लिए पर्याप्त मजदूरी व वेतन तथा सामाजिक सुरक्षा को सर्वाेच्च प्राथमिकता दे। पांचवां किसानों  के सभी उत्पादों को वाजिब दाम तथा उनके हर जोखिमों के लिए पूर्ण सुरक्षा का प्रावधान। छठा सरकार के सभी उपक्रमों में किसी भी सूरत में घाटे में नहीं चलने देने तथा सभी तरह के आर्थिक आधारभूत संरचना उत् पादों व सेवाओं के निरंतर विस्तार तथा इन्हें वाजिब मूल्यों पर इनकी उपलब्धता। सातवां साधनयुक्त वर्ग से राजस्व की ज्यादा वसूली तथा साधनहीन वर्ग को इसके स्थानांतरण की पूरी मेकानिज्म का गठन, यही किसी भी सरकार के कार्य का मुख्य मानदंड निर्मित होना चाहिए।


परंतु उपरोक्त बातों से इतर जब सरकारें अपने उपक्रम और व्यावसायिक प्रतिष्ठान की सेवाओं में बजाए बेहतर प्रबंधन, सुधार और टर्नअराउंड लाए, इनके उत्पादों व सेवाओं को अपने सब्सिडी के मार्फत लोगों को उपलब्ध कराये तो यह एक घोर खतरनाक स्थिति है। अगर दिल्ली शासित आप पार्टी अपनी सरकारी महकमों और सभी लोक उपक्रमों में सभी तरह के लीकेज दूर कर, उनमे कामचोरी और अनुत्पादकता समाप्त कर, उनमे हर तरह के भ्रष्टाचार को निर्मूल कर, उनके प्रबंधन को हर तरह से चाक चौबंद बनाकर सरकार के राजखजाने को बढाती और फिर उसे उपभोक्ता और जनता में बांटती तो वह एक बेहद स्वागतजनक बात होती। विडंबना ये है कि हमारे देश के राजनीतिक दलों में अभी एक ऐसी परिपार्टी चल पड़ी है कि बिना व्यापक सुधारों को अंजाम दिए सस्ती व त्वरित राजनीतिक लोकप्रियता हासिल करने के खातिर कुछ भी दांव पर लगा दो। परंतु इनसे देश की अर्थव्यवस्था को तो भारी चोट पहुंचना तय है। घाटा, कुप्रबंधन और विकास दर प्रभावित होना तय है। लोगों की कर्ज माफी कर देना, बिजली फ्री दे देना, परिवहन व सार्वजनिक सेवाओं पर भारी सब्सिडी वहन करना, करों व लोन की वसूली में सेलेक्टिव तरीके से बचाव करना, सार्वजनिक परिसंपत्ति को निजी क्षेत्र को मनमाने तरीके से उपयोग करने की छूटें दे देना, क्रोनी कैपिटलज्मि को बढावा देना ,ये सभी राजनीतिकबाजों की ऐसी फितरतें रही हैं जो ना तो जनकल्याण लाती हैं और ना ही किसी भी निरीह जनता को मुकम्मल राहत देतीं हैं। बस जनता के ही एक जेब से पैसे निकालकर उनके दूसरे जेब में डालने की छदम कारकरदगी की जाती है।


हैरत की बात ये है कि देश की राजधानी दिल्ली वह जगह हैं जहां मध्य और उच्च मध्य वर्ग के लोगों की काफी तादात है और उनके पास पर्याप्त क्रय शक्ति है। अपने पोलीटिकल एडवेंचरिज्म में आकर इन्हें फ्री बस मेट्रो देकर आखिर इन्हें कौन सी राहत दी जा रही है। यदि दिल्ली सरकार इन उपक्रमों पर पडऩे वाले आर्थिक बोझ का वहन अपने राजखजाने से कर रही है तो क्या यह राशि कमजोर वर्ग के कल्याण पर जिस पर ज्यादा खर्च की जरूरत हैं, प्रभावित नहीं होगी। डीटीसी वैसे भी आर्थिक रूप से एक जर्जर उपक्रम में तब्दील हो चुका है। एक राजनीति के तहत दिल्ली मेट्रो के किराये में पिछले दस साल से कोई  बढोत्तरी नहीं की गई, जिसकी भरपाई के लिए दिल्ली मेट्रो नेे पिछले साल अपने किराये में करीब दोगुनी बढ़ोत्तरी कर लोगों पर अचानक एक बड़ा बोझ डाल दिया। चूंकि दिल्ली मेट्रो आधुनिक प्रबंधन शैली में कार्य करने वाली कंपनी है जो सफेद हाथी की तरह अपने आप को संचालित नहीं कर सकती, सो उसने अपने पिछले दस साल के बोझ को एक बार में ही किराये बढाने का एक बेहद कठोर फैसला ले लिया। दूसरी तरफ दिल्ली सरकार मेट्रो सेवाओं को आधी आबादी के लिए फ्री करने का एक दूसरा अति कदम उठा लिया। ये दोनो फैसले किसी भी अर्थव्यवस्था के जानकार के गले नहीं उतरने वाले। यही बात मुंबई उपनगरीय ट्रेन सेवा के मामले में भी दिखती हैं जहां अरसे से अस्सी लाख यात्री रोजाना बेहद मामूली किराये देकर आज भी सफर करते हैं जबकि वहां लोगों के पास पर्याप्त क्रयशक्ति हैं परंतु वहां के सभी राजनीतिक प्लेयर इनके किराये में मामूली भी बढ़ोत्तरी किये जाने के खिलाफ हैं। इन वजहों से भारतीय रेलवे को अपनी मुंबई उपनगरीय सेवाओं के जरिये भारी घाटा वहन करना पड़ता है।देश में पहले बड़े बड़े मंत्रिमंडल बनाने, जब चाहे दलबदल कर लेने, चुनावों में बेहिसाब पैसे खर्च करने की परिपार्टी प्रचलन में हुआ करती थी पर आखिर इन सभी राजनीतिक पोपुलिज्मों को कानूनन समाप्त कर दिया गया। क्या हम ठीक ऐसे ही देश में फ्री बिजली, बैंक लोन माफी, सार्वजनिक सेवाओं के उपयोग दरों पर भारी सब्सिडी के प्रावधान पर भी कानूनी प्रतिबंध नहीं लगा सकते? आज जरूरत है कि समूचे देश में एक ऐसा प्रावधान लाया जाए जिसमे सभी तरह की सार्वजनिक सेवाओं की प्रशुल्क दरें सालाना थोक मुद्रा स्फीति दर के हिसाब से जो लगभग दो ढाई प्रतिशत बनती है, बढ़ोत्तरी की छूट दी जाए। और इसके साथ ही इन सभी सेवा प्रदायी संस्थाओं में सभी दर के लीकेज, घाटे और कुप्रबंधन को सुधार कर इससे मिलने अतिरेक राजस्व को उपभोक्ताओं को स्थानांतरित किया जाए।


अगर ऐसा कदम उठाया जाता है तो देश के सभी प्रतियोगी राजनीतिक दलों को एक समान लेवल प्लेयिंग फील्ड प्राप्त होगा और इसके साथ हीं उनके लिए बेहतर शासन, कार्य कुशलता, समुचित आर्थिक प्रबंधन और एक समान दृष्टि को अपनाने की एक व्यापक कसौटी निर्धारित होगी। यदि हम ऐसा नहीं करते तो भारत में इस तरह की पोलीटिकल एडवेंचरिज्म देश के  राजखजाने को हमेशा तबाह करती रहेगी और आम लोगों की कल्याणकारी योजनाएं इसका भार वहन करेगी।