रेलवे के निजीकरण का अध्याय कैसा होगा

रेलवे के निजीकरण का अध्याय कैसा होगा


मनोहर मनोज


वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा पेश बजट में वैसे तो कई सारे आर्थिक विजन प्रस्तुत किये गए हैं, परंतु इन सबमे भारतीय रेलवे में निजी क्षेत्र के आमंत्रण का जो उल्लेख है वह भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए एक बड़ी व एतिहासिक परिघटना है। भारतीय रेलवे के करीब 165 साल के इतिहास में निजी क्षेत्र की एक बड़ी भूमिका की पहली बार कोई रूप रेखा प्रस्तुत की गई है। भारतीय रेलवे की मौजूदा स्थिति में इस पहल की जो सबसे महत्वपूर्ण वजह है वह है भारतीय रेलवे में अगले एक दशक के दौरान करीब पचास लाख करोड़ के निवेश की दरकार। और यह विशाल निवेश राशि अकेले सरकार के बूते की बात नहीं सो देश क े निजी क्षेत्र को इसमे अपनी भागीदारी का न्यौता दिया गया है। देखा जाए तो यह पहल अभी कई लोगों को नागवार लग रहा है क्योंकि ये लोग भारतीय रेलवे को अभी तक भारत सरकार के एक मंत्रालयी उपक्रम के रूप में संचालित होते देखने के अभ्यस्त रहे हैं। कई लोगों को यह लगता है कि निजी क्षेत्र के आने के बाद भारतीय रेलवे जो विशाल भारतीय लोकतंत्र के लिए जो एक अपना सरीखा परिवहन माध्यम था, देश के लाखों लोगों की जीविका का तो हजारों के लिए एक आश्रय स्थल भी और विशाल भारत की एकता व अखंडता का भी। वे यह मानते हैं कि देश की सार्वजनिक संस्कृति व जनजीवन में रचा बसा यह रेलवे इससे पराया भी हो जाएगा, महंगा हो जाएगा और आम लोगों के पहुंच से बाहर हो जाएगा।


दरअसल भारतीय रेलवे को किसी भावुकता भरी नजरों से सरकारी सामाजिक उपक्रम के रूप में देखकर हम भारतीय रेलवे की मौजूदा स्थिति के मर्म को नहीं समझ सकते। ऐसा नहीं है कि भारतीय रेलवे सरकारी स्वामित्व में चलकर भारत के लाखों लोगों को केवल गुदगुदाता ही हो, यह उतना ही रूलाता भी है। इसमे लंबी दूरी हो या छोटी दूरी, भेड़ बकरियों की तरह ठूंसकर लोग यात्राएं करते हैं। यहां भ्रष्टाचार के सर्वाधिक मामले घटित होते हैं और इनमे जो कुछ दर्ज होते हंै वे भारत सरकार के महकमों में सर्वाधिक है। परंतु भारतीय रेलवे की उपरोक्त वर्णित सभी विशिष्टताओं को बरकरार रखते हुए तथा इसमे मौजूद सभी तरह की अक्षमता, कमियों व लीकेज को दूर करने हेतू हमे एक निजीकरण का एक माडयूल बनाना पड़ेगा। इस निजीकरण माड्यलू की पूरी मेकानिज्म निर्धारित होने के उपरांत ही इसमे निवेशजनित निजीकरण को अमली जामा पहनाने का काम तय हो पाएगा। हमे यह बात नहीं भुलना चाहिए कि भारतीय रेलवे का नेटवर्क आजादी के समय ५० हजार किलोमीटर था वह पिछले सत्तर साल में बढकर केवल ६५ हजार किमी हो पाया है जबकि यात्रियों की संख्या करीब तिगुनी बढ चुकी है। हमे इस तथ्य को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए कि भारतीय रेलवे का पैसेंजर फ्रंट भारतीय रेलवे की पूरी आमदनी में केवल एक तिहाई योगदान करती है जबकि उसके कुल खर्चे का दो तिहाई हिस्सा लील लेती है । दूसरी तरफ माल परिवहन भारतीय रेलवे की आमदनी में दो तिहाई का अंशदान करता है परंतु खर्चे का केवल एक तिहाई उपयोग करता है। जाहिर है भारतीय रेलवे का पैसेंजर फ्रंट पूरी तरह क्रास सब्सिडी से संचालित है जो भारतीय रेलवे के कुप्रबंधन व कमतर स्वास्थ्य की निशानी है। भारतीय रेलवे के पास करीब छह हजार स्टेशन, देश का दूसरा सबसे बड़ा लैंड बेैंक, 15 लाख लोगों का रोजगार प्रदाता, करीब एक एक करोड़ लोगों को अप्रत्यक्ष रोजगार तथा भारत की समूची अर्थव्यवस्था की लाइफ लाइन, फिर भी इसका कुल कारोबार महज डेढ लाख करोड़ रुपये। इससे ज्यादा कारोबार तो एक पेट्रोलियम पीएसयू कर लेता है जबकि खुद रेलवे के पास एक दर्जन अपने सार्वजनिक उपक्रम हैं। कहीं ना कहीं हमे यह स्वीकार करना पड़ेगा कि भारतीय रेलवे का मुनाफा टीटी, दलाल, कांट्रेक्टर, भ्रष्ट रेलकर्मी और बड़े अधिकारियों व राजनीतिज्ञों की जेब में जा रहा है। जाहिर है भारतीय रेलवे के इतने बड़े तंत्र में तो करीब एक दर्जन टाटा और अंबानी सरीखे निजी कारोबारी पैदा हो सकते थे। परंतु आज हमे यह सोचने की नौबत आ गयी है कि भारतीय रेलवे जो कल्याणकारी व प्रोत्साहन सरीखे कदमों पर महज 800 करोड़ का भार वहन कर अपनी इस विशाल परिसंपत्ति से पर्याप्त रिटर्न क्यों नहीं प्राप्त कर पाता। उसे एक मामूली मुनाफा कमाने से भी संघर्ष क्यों करना पड़ता है। जाहिर है कि एकाधिकारी की स्थिति चाहे वह सरकारी स्वामित्व में हो या निजी स्वामित्व में, उसक ी अपनी विरूपताएं तो होती ही हैंं। दरअसल हम पिछले सत्तर साल के दौरान भारतीय रेलवे में बहुस्तरीय संरचनात्मक परिवर्तन का एक व्यापक विजन लेकर आ ही नहीं पाए। आज भारतीय रेलवे में तगड़े कोर्स करेकशन की जरूरत है। और यदि इस कार्य में निजी क्षेत्र को न्यौता दिया जा रहा है, तो इसमे कोई परेशानी नहीं बशर्ते निजीकरण का एक ऐसा मल्टी माडेल गठित हो जो एक नहीं अपने आप में कई बातों को समाहित किये हो। मसलन इसमे निजी व सार्वजनिक भागीदारी भी हो तथा आपसी प्रतियोगिता भी हो, इसमे परस्पर निवेश के मुताबिक राजस्व हिस्सेदारी हो जो एक समान लेवल प्लेयिंग पर आधारित हो। दूसरा इसमे टेलीकाम की तरह बहुस्तरीय नियमन प्राधिकरण का गठन हो। तीसरा इसमे निजी क्षेत्र के लिए खुले चरने के लिए मलाइदार क्षेत्र का आबंटन नहीं बल्कि सरकार द्वारा निर्धारित मूल्य के तहत प्रशुल्क व मुनाफा कमाने की बंदिशें हों। आज रेलवे में सबसे ज्यादा निवेश की जरूरत है मौजूदा पैसठ हजार किमी रेलवे नेटवर्क के दोनो तरफ पैसठ हजार अतिरिक्त रेल ट्रेक बिठाने में जो भारतीय परिवहन अर्थव्यवस्था के अगले पचास साल की जरूरत है। यदि नये नियमन प्राधिकरण के तहत निजी क्षेत्र इसमे निवेश करते हैं तो उन्हें भविष्य में निवेश के हिसाब से राजस्व की हिस्सेदारी देने में किसी को परेशानी नहीं होनी चाहिए। ट्रेन के संचालन की जिम्मेवारी बिजली वितरण के क्षेत्र में कार्यरत निजी उपक्रमों के तर्ज पर दी जा सकती है। परंतु किरायेे, पेनाल्टी व सुविधा का निर्धारण सरकारी नियमन प्राधिकरण के तहत हो। एक अच्छे रेलवे स्टेशन बनाने की लागत एक शापिंग माल के ही बराबर है तो फिर एक शापिंग माल के तर्ज पर एक स्टेशन से भी राजस्व क्यों नहीं अर्जित किया जा सकता है। आज का आर्थिक दौर नियमन प्राधिकरण का है। सरकारी एकाधिकार व निजी एकाधिकार दोनो उपभोक्ताओं का शोषण करते है। आखिर भारतीय रेलवे की प्रीमियन टे्रेन का कानसेप्ट क्या है, वह भी निजी क्षेत्र की तरह लूट का एक सरकारी नमूना है।


यदि रेलवे में सालाना मुद़ा स्फीति की दर के हिसाब से अपने प्रशुल्क में बढोत्तरी की अनुमति के साथ एक माल्टी माडय़ूल नियमन प्राधिकरण के तहत ें निजी निवेश को आमंत्रित किया जाता है तो रेलवे भी भारत में टेलीकाम की तरह एक बड़ी परिवहन क्रांति का सूत्रधार बन सकती है। सरकार को रेलवे का निजीकरण करना चाहिए पर परंपरागत निजीकरण के माड्यूल पर बिल्कुल नहीं बल्कि एक ऐसे होशियारी भरे नियमन प्राधिकरण के तर्ज पर जिसमे रेलवे में अल्प निवेश का सांप भी मर जाए और निजी क्षेत्र के मुनाफे की लूट की लाठी भी बच जाए और समूचे देश को एक नयी रेल परिवहन क्रांति का माहौल भी प्राप्त हो जाए। यह सबकुछ रेलवे के निजीकरण के रणनीतिकारों की सूझ बूझ और उनके लंबे कवायद पर निर्भर करेगा।


हकीकत ये है कि भारतीय रेलवे में छोटी दूरी पर चलने वाले ट्रेनों में ना तो टिकट चेकिंग होती है और ना ही टिकट घर में आसानी से टिकट मिल पाते हैं। भारतीय रेलवे का राजस्व मारा जाता है। यदि सरकार वेंडिंग मशीन के जरिये राजस्व कमाने में अक्षम है तो निजी क्षेत्र को इसमे शामिल करो। निजीकरण तबतक खराब नहीं हैं जबतक यात्रियों पर अनाप शनाप बोझ ना डाला जाए, ट्रेनों की पर्याप्त संख्या उपलब्ध हो, आन डिमांड टिकट हर हमेशा उपलब्ध हो, पार्सल बूकिंग सहज सरल तरीके से हो जाए। कहना ना होगा पिछले चार सालों में मोदी सरकार में रेलवे में सालाना पूंजीगत निवेश में काफी बढोत्तरी हुई है। पिछले पांच साल में रेलवे में पूंजीगत निवेश में करीब छह गुनी बढोत्तरी हुई। रेलवे का विद्युतीकरण बढ़ा, रेलवे ट्रेैक का नवीनीकरण बढ़ा। परंतु अभी भी भारतीय रेलवे में तमाम विसंगतियां है। कई जगहों पर पर्याप्त किराये नहीं लिये जाते, कई जगह यात्रियों को हजारों रुपये पेनाल्टी देनी पड़ती है।