श्रम सुधारों का नया एजेंडा और हमारा विषमतामूलक समाज

श्रम सुधारों का नया एजेंडा और हमारा विषमतामूलक समाज


मनोहर मनोज


भारत में नयी आर्थिक नीति के परवर्ती काल में जब जब श्रम सुधारों की बात हुई तो उसका आशय पूंजीपतियों या उद्यमियों के हितों को बढावा देने वाला और कामगारों के हितों की तिलांजलि का द्योतक माना जाता रहा है। जबकि हकीकत ये है कि हमारे पचास के करीब मौजूदा श्रम कानून देश के करीब शत प्रतिशत सरकारी कर्मचारियों व कुछ चंद निजी कारपोरेट कर्मचारियों जिनकी कुल तादात देश की कुल श्रमशक्ति का महज १० फीसदी है, उनके हितों का पोषक रही है। देश के बाकी ९० फीसदी कामगार जिनमे शत प्रतिशत ब्लू कालर श्रमिक, शत प्रतिशत खेत मजदूर, करीब ९० फीसदी निजी क्षेत्र के कामगार तथा अंत में देश के करीब तीन करोड़ बेरोजगार शामिल हैं, उनके हितों से इन चार दर्जन श्रम कानूनों के महान प्रावधानों से ना कोई वास्ता रहा है और फायदों का तो कोई सवाल ही नहीं। यह कैसी विडंबना रही है कि भारत देश जो दुनिया में तमाम मामलों में अपनी रैकिंग सुधारता जा रहा है, उस देश में आय असमानता, उपभोग असमानता, रहन सहन असमानता, सामाजिक आर्थिक सुविधाओं की उपलब्धता में असमानता और सबसे उपर वहां शैक्षिक, रोजगार व कार्य परिस्थितियों में असमानता नित दिन बढती ही जा रही है। और आज की तारीख में यह असमानता और भेदभाव एक स्थायी संस्थागत रूप ले चुकी है। यही वजह है कि बीमार व सफेद हाथी की तरह चलने वाले देश के अनेक उपक्रमों के कर्मचारियों को आप सीधे छुट्टी ना देकर उन्हें वीआरएस जैसी स्कीमों के मार्फत जनता की गाढी कमाई से वसूले गए करों से एक एक कर्मचारी को पचास पचास लाख रुपये दिये जाते हैं। दूसरी तरफ निजी व छोटे छोटे स्वरोजगार उपक्रमों में किसी हादसे दूर्घटना या बंदी के समय उसके कामगार को पचास हजार रुपये की मामूली रकम हरजाने में दिये जाने के लाले पड़े रहते हैं। संगठित क्षेत्र में एक चतुर्थ वर्ग के कर्मचारी को पचास हजार की तनखाह सुरक्षित है दूसरी तरफ असंगठित क्षेत्र में पांच हजार तनखाह की नौकरीभी असुरक्षित होती है। और ऐसे मे हमारी श्रम राजनीति केवल दस पंद्रह फीसदी आबादी वाले संगठित श्रम संघों के इर्द गिर्द मंडराती रहती है। इन श्रम संघों के धरने प्रदर्शन हमारी मीडिया में सुर्खियां बनती हैं जबकि लाखों मजदूर बेहद आमनवीय, अवसादजनित, अस्वास्थ्यकर और अपर्याप्त मजदूरी कार्यपरिस्थितियों के तहत अपनी जिंदगी गुजार देते हैं पर इनकी दुर्दशा हमारे लोकतांत्रिक समाज की मीडिया की सुर्खिया नहीं बनती हैं। इसका कारण है कि हमारे पब्लिक डिस्कोर्स का अबतक का यही चलन रहा है, यही परिपार्टी रही है। ऐसे में अभी नरेन्द्र मोदी नीत एनडीए-2 सरकार द्वारा संसद में पेश श्रम सुधारों क े जो दो संहिता विधेयक पेश हुए हैं उनके विभिन्न प्रावधानों से हमारी इन मौजूदा श्रम व उत्पादकता की परिस्थतियों पर क्या प्रभाव पड़ेगा, इस बात की विवेचना बेहद महत्वपूर्ण है।


गौरतलब है कि मोदी सरकार कुल मिलाकर देश के करीब ४4 श्रम कानूनों को निरस्त कर इसे चार वृहद विधेयक संहिताओं में परिवर्तित करने का इरादा बनाया है। इन चार वृहद विधेयकों में दो विधेयक क्रमश: न्यूनतम मजदूरी विधेयक यानी मिनिमम वेज कोड और पेशागत स्वास्थ्य सुरक्षा व कार्यपरिस्थिति यानी आक्युपेशनल सेफ्टी,हेल्थ एंड वर्किंग कन्डीशन्स कोड संसद में पेश किया जा चुके हैं। इन दोनो विधेयकों के मुख्य अवयव क्या है, यहां इसका उल्लेख जरूरी है। पहले मिनिमम वेज विधेयक के दायरे में अब देश के करीब सभी ५० करोड़ कामगार शामिल किये जाएंगे और इन्हे इनके कौशल और कार्य स्थल की भौगोलिक स्थिति के मुताबिक मजदूरी की राशि व उसे समय पर भुगतान करने की बात कही गई है। इस विधेयक में मौजूदा चार मिनिमम वेज व बोनस कानूनों १९३६,१९४८,१९६५ और १९७६ को समाहित कर दिया गया है। न्यूनतम मजदूरी की राशि विभिन्न राज्य सरकारों, श्रम व नियोक्ता संगठनों की सामूहिक राय से तय करने और हर पांच साल में इसे संशोधित करने की बात कही गई है। दूसरे कानून जिसे संक्षेप में ओएसएच का नाम दिया गया है उसमे केन्द्र सरकार के मौजूदा 13 श्रम कानून समाहित कर दिये गए हैं। इस कानून के दायरे में कामगारों के लिए क्रेच, कैंटीन, वेलफेयर और फस्र्ट एड जैसी सुविधा देश के हर दस से उपर श्रमशक्ति वाले कार्यस्थलों पर देना अनिवार्य बनाने के साथ साथ इस कानून के दायरे में मीडिया व सिनेमा थियेटर उद्योग कर्मियों को भी शामिल किया गया है।


गौरतलब है कि इस नये कानून द्वय का उद्देश्य एक तरफ यदि तमाम श्रम कानृूनों के उलझाव से मक्ति दिलाकर श्रम कानूनों को सक्षिप्त रूप में ढालकर यदि सुलझाना है तो दूसरी तरफ बिजनेस करने वालों और नये बिजनेस शुरू करने वालों को भी तमाम श्रम कानूनों के लाइसेंसों से भी मुक्ति दिलाना है। कहना ना होगा कि उद्योग, मैन्युफक्चरिंग या किसी भी सेवा उद्योग में उत्पादकता को हतोत्साहित कर यदि श्रम अधिकारों की बात की जाती है तो वह दरअसल श्रम विरोधी है। क्योंकि यदि उत्पादकता नहीं होगी तबतक श्रमिक या कामगार वर्ग की वेतन बढोत्तरी की मांग भी तार्किक तरीके से सिरे नहींं उठ पाएगी। हां, उत्पादकता के बावजूद यदि पारिश्रमिक और अन्य श्रम कल्याण की मांगों की अनसुनी की जाती है तो वहां इन श्रम कानूनों की प्रासंगिकता और सबसे उपर देश में पदनियुक्त  तमाम श्रम कल्याण निरीक्षकों और श्रम न्यायालयों की भूमिका भी सवालों के घेरे में आ जाती है। कहना ना होगा इन्हीं पेचीदा श्रम कानूनों की वजह से श्रम विभाग के नौकरशाहों और नियोक्ताओं के बीच देश में एक नापाक गठबंधन बना हुआ है जिससे देश का विशुद्ध कामगार वर्ग पीसता और पीटता रहा है। यदि देश में उत्पादकता का बेहतर माहौल बनता है तो वैसी स्थिति में देश में सभी उपक्रमों के प्रबंधन में श्रमिकों की हिस्सेदारी का सवाल भी प्रासंगिक बन जाता है। हमे यहां यह भी नहीं भुलना चाहिए कि एक तरह हमारे देश में कामगारों के शोषण और तमाम यातनाओं से गुजरने का माहौल दिखायी देता है तो दूसरी तरफ हमे श्रम संघवाद की अतिवादिता भी देश में उत्पादकता का माहौल बिगाडऩे और लाखों कामगारों की आजीविका को संकट में डालने का भी इतिहास रहा है। हम मुंबई में लाखों कपड़ा मजदूरी की उस लंबी हड़ताल के अंजाम का भयानक सच देख चुके हैं तो दूसरी तरफ मारुति में श्रमिक संगठनों व प्रबंघन के बीच हिंसा का तांडव रूप भी देख चुके है।


आज देश में बेरोजगारों की संख्या रिक ार्डजनक तरीके से बढ रही है। कामगारों के बीच की सामाजिक आर्थिक खाई दिनो दिन बढती जा रही है। ऐसे में इस देश में ऐसे श्रम कानूनों की दरकार है जो व्हाइट कालर व ब्लू कालर, संगठित क्षेत्र के कामगार व असंगठित क्षेत्र के कामगार, सरकारी क्षेत्र के कामगार व निजी क्षेत्र के कामगार , पक्की नौकरी व कांट्रेक्चुअल नौकरी के बीच की विभाजन रेखा को बिल्कुल मिटा दे। सबकी वेतन व कार्यपरिस्थितियां उनके कौशल, उत्पादकता और ईमानदारी के आधार पर बनी विभाजन रेखा को केवल कायम रखे। ऐसी स्थिति में हीं देश में रोजगारप्राप्त और बेरोजगारों की भी विभाजन रेखा मिटेगी क्योंकि फिर किसी भी वर्कर की उत्पादकता व लगन ही उसे अपने कार्यस्थल को सुनिश्चित करेगी। और तभी देश में हर तरह से असमानता का पोषण कर रही परिस्थितियों की जमीन पर समानता के एक नये बीजमंत्र का प्रतिरोपण संभव होगा।