मंदी पर काबू पाने के भी रास्ते हैं

मंदी पर काबू पाने के भी रास्ते हैं


मनोहर मनोज


अभी अभी सौ दिन पूरे होने पर मोदी सरकार-2 की उपलब्धियां जब केन्द्रीय मंत्री प्रकाश जावड़ेकर गिना रहे थे, तब उन पर मीडिया की तरफ से सबसे ज्यादा सवालों की बौछार देश के गमगीन आर्थिक हालात पर ही की गई। परंतु मंत्री ने मौजूदा आर्थिक बदहाली को उन्हीं दो जुमलों की बहानेबाजी के जरिये टाला जिनको यूपीए भी अपने जमाने में प्रयुक्त किया करती थी। पहला जुमला कि पूरे विश्व में आर्थिक मंदी का दौर चल रहा है दूसरा मौजूदा स्थिति भारतीय अर्थव्यवस्था की महज एक चक्रीय अवस्था है और हम जल्द ही पंाच फीसदी विकास दर से सीधे दहाई अंक की विकास दर में छलांग लगा लेंगे। दरअसल अभी एक साल से भारतीय अर्थव्यवस्था की तमाम मानकों पर चल रही डावांडोल स्थिति के तार सीधे सीधे मोदी सरकार द्वारा विगत में आनन फानन में लिये गए नोटबंदी व जीएसटी के निर्णयों से जुड़े हैं जिसे पूर्व प्रधानमंत्री व अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह ने भी अब गैर राजनीतिक तरीके से लोगों के समक्ष स्पेल आउट किया। मोदी सरकार को भी अंदरखाने से पता है कि अपनी पीठ थपथपाए जाने की हडबड़ी में लिए गए इन निर्णयों ने भारतीय अर्थव्यवस्था में कितनी बड़ी गडबडी लाई परंतु राजनीतिक सफलताओं के अहंकार ने उसे इन गलतियों को स्वीकार क रने के लिए बाध्य नहीं किया।


 परंतु अब स्थितियां बदल रही हैं। देश का जनमत देश की अर्थव्यवस्था के अलग अलग मानकों पर हो रही बदहाली पर अपना रोष निरंतर जता रहा है। ऐसे में वक्त आ गया है कि मोदी सरकार के आर्थिक कमान संभालकर्ता इन समस्याओं के फ ौरी उपाय, आने वाले दो सालों के लिए मध्यकालीन उपाय और अगले पांच सालों के लिए दीर्घकालीन उपाय की एक बड़ी कार्ययोजना लेकर आएं। हालांकि मौजूदा वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने 5 जुलाई को पेश अपने ढाई घंटे के बजट भाषण टेक्स्ट के जरिये देश की अर्थव्यवस्था को उपर ले जाने वाली एक बड़ी तस्वीर प्रस्तुत किया था। परंतु अगले एक महीने के भीतर ही उनके सारे टेक्स्ट धराशाही हो गए। फिर इसके बाद पिछले एक महीने के भीतर उनकी दो बड़ी घोषणाएं मीडिया वार्ता के जरिये आई जिन्हे बजट पार्ट 2 की भी संज्ञा दी गई। इन घोषणाओं में बजट में घोषित कैपिटल गेन टैक्स को वापस लेने के साथ बड़े पैमाने पर जीएसटी रिफंड को जारी करने तथा बैंकों के बड़े विलय की घोषणा महत्वपूर्ण थीं। इन सभी फैसलों के अपने अपने निहितार्थ रहे हों परंतु निर्मला सीतारमण को अभी वृहद स्तर पर यानी जिन मैक्रो इकोनामिक डिसीजन्स की दरकार है वह है अर्थव्यवस्था के सभी अनुलोमी कारकों को एक एक कर गंभीरता व सक्रियता से एड्रेस करना। इसकी पहली शुरूआत नोटबंदी व जीएसटी से हुए नुकसान के वास्तविक कारणों का पता लगाकर इनकी नये सिरे से नीतिगत मरम्मती से की जाए। मसलन देश में भय की वजह से देश के अंदर व बाहर शिथिल पड़े काले धन चाहे वह चल व अचल हो उसको व्यापक निवेश के लिए लुभाया जाए और उन्हें बाहर निकालवाया जाए। जब ये राशि या संपत्ति बाहर निकलेंगी तो स्वयंमेव टैक्स रूट में आकर ये निवेशित कालाधन सफेद में तब्दील हो जाएंगी। दूसरा यह कि जीएसटी में छोटे व बड़े कारोबारी की विभाजन रेखा को हटाकर सभी तरह के वस्तु व सेवा कर को उत्पादन के स्रोत यानी टीडीएस की तर्ज पर आरोपित किया जाए। इसके साथ रिटर्न भरने का काम स्वयंमेव कंप्यूटरीकृत तरीके से बिक्री के दौरान केवल थोक बिक्रेताओं व मूल उत्पादनकर्ताओं के लिए निर्धारित कर दिया जाए। कहना ना होगा इन्हीं दोनो फैसलों की वजह से मोदी सरकार का महान मेक इन इंडिया कार्यक्रम औधें मुंह गिरा है और मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र की विकास दर अभी नगण्य हो चुकी है। दूसरा ये कि जीएसटी राजस्व वसूली की मात्रा भी महज एक लाख करोड़ माहवारी पहुंचने के लिए कई महीने से निरंतर संघर्ष कर रही है। कहना ना होगा बिक्री कर को हटाकर जब देश में वैट प्रणाली का आगमन हुआ था तो पहले महीने से ही राज्यों की राजस्व वसूली में भारी बढोत्तरी दर्ज हुई थी।  निवेश की बात करें तो इस सरकार ने सुस्त अर्थव्यवस्था में जान फूंकने के लिए बैंकों से कर्ज सस्ता करने के हालंाकि लगातार प्रयास किये हैं जिसे आरबीआई ने भी अपनी रेपो दरों में लगातार तीन बार गिरावट लाकर इन प्रयासों का समर्थन किया। परंतु इन कदमों के बावजूद देश में बैंकों से कर्ज लेने के प्रति रुझान पर कोई असर नहीं दिखा है। बाजार विशेषज्ञों का मानना है कि देश में निजी व घरेलू स्तर पर निवेश राशि प्रचूर मात्रा में उपलब्ध है परंतु वह सुस्त मोड में है, उनमे या तो भय की स्थिति है या वे कोई और बेहतर सरकारी घोषणा व बाजार अवसर की तलाश में है। बात बैंकों की करें तो विलय के इतर इस सरकार को एक व्यापक व पारदर्शी बैंक कर्ज नीति लाने की जरूरत है जिनमे कर्ज स्वीकृति की प्रक्रिया विवेकाधिकार के बजाए स्वत:स्फूर्त व एक समान वाजिब जमानत राशि के समकक्ष तय हो जिससे आने वाले दिनों में एनपीए सदा के लिए खत्म हो जाए। दूसरा पुरानेे एनपीए की वसूली को और ज्यादा प्रोत्साहन देकर इसे समयबद्ध समाप्त किया जाए।


अर्थव्यवस्था के चक्रीय कारकों यानी रोजगार, आय, उपभोग, मांग, निवेश, उत्पादन व सरकारी प्रोत्साहन पर नजर डालें तो इन सभी कारकों में सबसे पहले जो सरकार के वश में है, उसे तो वह तुरंत उठा सकती है। मसलन सरकार अपने सभी कल्याणकारी व राहत व्यय तथा छोटे बड़े सभी निवेश प्रस्तावों जिनमे एक लाख करोड़ की आधारभूत संरचना पर होने वाला निवेश शामिल है, उसको त्वरित रूप से स्वीकृति प्रदान करे। इसके तहत सरकारी विभागों से स्थानांतरित तथा विभागों से स्वयं व्यय की जाने वाले राशि जब लाभार्थियों के जेब में जाएगी तो बाजार मांग में तुरंत तेजी दिखेगी। इसी के साथ ही सरकार आटोमोबाइल, वस्त्र सहित देश के सभी श्रेणी के उद्योगों क ो मिलने वाली पुरानी व नयी राजकोषीय रियायतें को त्वरित रूप से लागू कर उन्हें एक नया वातावरण प्रदान करे। इन कदमों से तय मानिये, अर्थशास्त्र की भाषा में आटोनामस और इन्डयूस्ड इन्वेस्टमेंट यानी सरकारी निवेश व निजी निवेश दोनो एक साथ बढ़ेंगे और इससे देश मेें उत्पादन की प्रक्रिया को दोतरफे तरीके से एक नया झोंका प्राप्त होगा।


आय यानी आमदनी की बात करें तो सरकारी राहतों, पेंशन व सब्सिडी रकम की अदायगी के अलावा केन्द्र व राज्य सरकारों के सभी सरकारी विभागों में खाली पड़े सभी जरूरी पदों जिनकी अनुमानित संख्या पचास लाख है, उसकी युद्ध स्तर पर बहाली का वक्त अब आ गया है। कहना ना होगा एनडीए की करीब डेढ दर्जन राज्यों में सरकारें हैं, वे कम से कम के न्द्र की इस पहल में साझीदार जरूर हो सकती हैं। हमे मालूम है इन नौकरियों को यदि कांट्रेक्ट में बहाल नहीं किया गया तो सरकारें इसमे रूचि नहीं लेंगी। अत: देश में घोषित रूप से एक नयी रोजगार नीति लायी जानी चाहिए जिसके तहत पहले सरकारी व निजी दोनों क्षेत्रों में अनिवार्य रूप से रोजगार आडिट करने का प्रावधान हो और दूसरा बेहतर कार्य शर्तों के साथ इन सभी को कांट्रेक्ट रोजगार देने का त्वरित कदम हो। समय आ गया है कि सरकार व निजी दोनो रोजगार परक विकास और प्रति कर्मचारी उत्पादन अतिरेक की नीति द्वय पर अपने हाथ आजमाएं।  इस कदम से देश के युवाओं में निराशा तो दूर होगी ही, सरकारी व निजी दोनो क्षेत्र के भ्रष्टाचार पर रोक लगेगी साथ साथ इससे देश की मंद अर्थव्यवस्था को भी एक नयी जान मिलेगी। कहना ना होगा देश में रोजगार सृजन की घटना को देश के नौकरशाहों की मनमर्जी व निजी क्षेत्र के मुनाफाकमाउं प्रवृतियों की मोहताज बनाकर नहीं छोडऩा चाहिए बल्कि इसे एक नीतिगत जामा पहनाया जाना चाहिए।