बसपा पर मै यह कहना चाहूंगा 

बसपा पर मै यह कहना चाहूंगा
हमारे देश में ये क्या विडम्बना है की जब भी आरक्षण पर , सामाजिक न्याय पर , स्त्री सशक्तिकरण पर , राष्ट्रवाद पर , सेक्युलरवाद पर कभी भी आउट ऑफ़ बॉक्स ज्यादा बेहतर ख़यालात दिए जाते है तो यथास्थितिवादी व्यस्था के पोषक लोग तुरत उस पर मार मार करने लग जाते है। इन वजहों से इन क्रन्तिकारी शब्दो के आतंक में छुपा सच बाहर नहीं आ पाता है और दरअसल एक गन्दगी के खिलाफ एक दूसरी गंदगी स्थापित हो जाती है। यही हाल मायावती और उनकी पार्टी के साथ जुड़ा है। हज़ारो साल की गुलामी और छुआ छूत भारत के समाज की एक सच्चाई थी पर इसके के बाद दलित उत्थान के सामजिक , आर्थिक और राजनितिक अजेंडे की आड़ में कैसे एक राजनितिक दल इनकी भावनाओ को करीब तीन दशको तक अपने कैद में रखते हुए दलितों के नाम पर दलित विरोधी प्रवृतियों को चलायमान बनाये हुए था । मसलन दलित नीचे बैठेंगे और उनकी नेत्री ऊपर बैठेंगी । दलित भूखे पिछड़े बदहाल बने रहेंगे पर उनकी नेत्री दौलत की रानी बनेगी। मार्क्स ने लोकतंत्र का मजदूरों का विरोधी बताया क्योंकि इसमें पूंजीवादी वोट खरीद लेंगे और मजदूर लोकतंत्र में निरीह बने रहेंगे। शताब्दियों तक गैर बराबरी की आग में झुलसे इस दलित समुदाय की लोकतंत्र में आवाज़ बनकर बसपा आयी पर इसमें हुआ क्या , इसमें हाल हाल तक पैसे से दलितों का नुमाईन्दा तय किया जाता रहा। इनमे अलग अलग टिकट की दर तय थी। नोटबंदी में 105 करोड़ की नकदी जमा के जब खुलासे हुए तभी यह तय हो गया की बहनजी दलित की नहीं दौलत की बेटी है। यह तो कांशीराम भी कहा करते थे की दलितो की मनःस्थिति अभी ऊपर कुर्सी पर बैठ सकने की नहीं है। अतः हमें अभी इनकी मानसिकता में नीचे ही बैठाना होगा और इसी का पालन इनकी चहेती बसपा नेत्री ने भी किया।
मायावती भारत की अकेली पॉलिटिशियन थी जिन्होंने नौकरशाही पर गज़ब का नकेल डाला पर अंत में साबित ये हुआ की यह व्यस्था बदलने के लिए तो बाद में पहले तो उनसे उगाही के लिए था। बसपा में दलित उत्थान का आदर्शवाद पहचान पूरक ज्यादा ,आदर्श और बदलाव पूरक कम था। पर दिक्कत ये है हमारे देश में कोई भी चीज अच्छी है या गलत , सच्ची है झूठी , इसका निरूपण तर्कों और नियत से नहीं ,जनादेश से ही ज्यादा परखा जाता है। बदलाव के मॉडल भी अपने तरीके से सेट है और उन्हें भी एक लीक फॉलो करनी पड़ती है। जनादेश तो हमेशा देर से आता है , क्योंकि तुलना त्मक रूप के कम समझदार जनता बाद में समझती है क्योंकि तुलनात्मक रूप से ज्यादा समझदार नेता उन्हें गुमराह कर जाता है। जबकि कोई नेता शाब्दिक रूप नेता इसलिए है क्योंकि वह ज्यादा समझदार है और उसका असल कार्य जनता को राह दिखाना है ना की अपने स्वार्थ का जनता की भावनाओ से सौदा करना है।