भाजपा  पर मैँ यह कहना चाहूंगा 

भाजपा  पर मैँ यह कहना चाहूंगा
कई लोग भाजपा को इसीलिए पसंद करते है क्योकि वे हिन्दू धर्म के प्रति काफी आसक्त है , उन्हें हिन्दू समुदाय के धार्मिक उपमानों का फलना फूलना पसंद है और उन्में अपने वर्ग शत्रु धर्म के प्रति सच और झूठ कई तरह के आग्रह और दुराग्रह दोनों है। उन्हें यह भी लगता है की दुनिया में इस्लामिक और इसाई राष्ट्रों की तो भरमार है पर अपन हिन्दू का भी तो एक राष्ट्र भारत वर्ष के रूप में स्थापित हो। पर मेरी नज़र में आरएसएस और भाजपा के सांगठनिक और वैचारिक विस्तार का सबसे बड़ा नैतिक आधार देश के सांप्रदायिक विभाजन से उत्पन्न होता है। इस संगठन का रोष जिन्ना के इस्लामिक नेशन और द्विराष्ट्रवाद की करतूतो से उत्पन्न होता है। इस संगठन को लगता है की कांग्रेस की सेकुलरिज्म उसी दिन फ़ैल हो गयी , जिस दिन जिन्ना ने अलग पाकिस्तान का निर्माण कर लिया , उसके बावजूद भारत में बचे विशाल मुल्सिम आबादी को समानता और संविधानवाद के आधार पर शिरोधार्य किया गया । पर विडम्बना ये है की अधिकतर भाजपा और आरएसएस के समर्थको खासकर युवा समर्थको को इसे लेकर उतना मलाल नहीं जितना लगाव उन्हें बीजेपी जैसी पार्टियों से हिन्दू धर्म के रूढ़िवादी उपमानों और कट्टर प्रतिवादों के चैंपियन होने पर आधारित है। दूसरा नैतिक बल बीजेपी और जनसंघ को यह प्राप्त हुआ की देश के बहुदलीय लोकतंत्र में कांग्रेस असल में एकाधिकारी और एक वंश की पार्टी के रूप में लगातार राज करती रही। इसीलिए वह देश के एक राजनितिक विकल्प का रूप लेने की हक़दार है। तीसरा आधार जो आधुनिक लोकतंत्र की दृष्टि से ज्यादा महत्वपूर्ण है , वह है गुड गवर्नेंस के मा नको पर ज्यादा खरा उतरने का प्रयास । इन तीनो मानको पर बीजेपी का उभार भारतीय लोकतंत्र की दृषि से महत्वपूर्ण है। परंतु आज बीजेपी के पास सबसे बड़ी चुनौती उपरोक्त तीनो आदर्शो पर वास्तव में मंशा वाचा कर्मणा उतरने की है। प्रधानमंत्री मोदी चुनावी जीत के उपरांत अपनी पार्टी को अब विनम्र होने की सी ख देते है। पर दरअसल प्रधानमंत्री को आगे खुद इस बात की एक बड़ी परीक्षा देनी होगी की आखिर जब वह विज्ञानं भवन में किसी राष्ट्रीय सम्मलेन में बोलते है तो कैसे एक विजनरी की तरह बोलते है, मन की बात में आते है, तो कैसे जनता के दिलो में उतरने का प्रयास करते है। पर चुनावी भाषण में कैसे कैसे वह सांप्रदायिक तंज, विचारहीन अग्रेशन और सामुदायिक ध्रुवीकरण करने का प्रयास करते है , जिसमे गोमांस , तो कभी कभी कब्रिस्तान , तो कभी ईद की बात होती है। अगर इस मौजूद कलियुगी राजनीती में आपको लगता है की यही सारी बातें जनमानस को उद्वेलित करती है तो फिर आप जनता के सामने नयी नज़ीर तो पेश करें। मोदी ने गोधरा के आइडेंटिटी पॉलिटिक्स के बाद गुड गवर्नेंस को लेकर अगले 12 वर्षो के दौरान तगड़ी पहचान बनायीं , पर इसके बावजूद इन्हें अभी भी चुनावो में गुड गवर्नेंस की बात करने का पूरा आत्मविश्वास नहीं है। पर अब बीजेपी को अगले चुनावो में केवल गुड गवर्नेंस की ही बात करनी चाहिए और आइडेंटिटी पॉलिटिक्स को जड़ मूल से ख़तम करने के लिए पार्टी में सभी समुदायों को समुचित और संतुलित प्रतिनिधित्व देना चाहिए। साथ ही बीजेपी को अपनी पार्टी में छदम सेक्युलरवाद पर जरूर हमला करना चाहिए पर इसकी आड़ में सच्चे सेक्युलरवाद को धता नहीं बताना चाहिए] जैसा की इनके कई समर्थक ऐसा प्रदर्शित करते है । अन्य धर्मो की तरह हिन्दू धर्मान्धता किसी हाल में पनपने नहीं देना चाहिए। उन्हें यह समझाना चाहिए की सेकुलरिज्म आधुनिक भारत और यहाँ के बहुसंख्यक हिन्दुओ की महानता का बहुत बड़ा प्रतीक है। आखिर आदित्यनाथ योगी जैसे फायरब्रांड नेता मुख्यमंत्री के ताज मिलने के पहले तक राग द्वेष से भरे होते है , पर पद मिलने के बाद वह सभी के साथ एकसमान और किसी से भेदभाव नहीं कर ने की नैतिकता वह क्यों दर्शाते है। एक और खूबी भाजपा में थी जो खूबी कम्युनिस्टो के लावा किसी पार्टी में नहीं थी , वह थी परिवारवाद से दूर , पर भाजपा के कई नेता अपने बेटो के राजनितिक करियर के लिए वैसे ही प्रयन्तशील है जो असल में कई दशको से कांग्रेस और सभी प्रांतीय पार्टियों का राजनितिक डीएनए बना हुआ था ।